
मध्य प्रदेश के इंदौर से एक गंभीर और भावनात्मक मामला सामने आया है, जहाँ ब्रेन ट्यूमर से पीड़ित तीन साल चार महीने की बच्ची वियाना जैन को उसके माता-पिता ने जैन धर्म के ‘संथारा’ व्रत की प्रक्रिया के तहत मृत्यु की ओर अग्रसर किया। इस घटना के बाद बच्ची की मौत हो गई और मामला कानूनी व नैतिक बहस के घेरे में आ गया है।
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क्या है संथारा?
संथारा, जिसे सल्लेखना भी कहा जाता है, जैन धर्म का एक धार्मिक व्रत है, जिसमें गंभीर बीमारी या मृत्यु निकट आने पर भोजन-जल त्याग कर व्यक्ति शांतिपूर्वक शरीर छोड़ने की तैयारी करता है। आमतौर पर यह परिपक्व मुनियों या बुजुर्ग श्रद्धालुओं द्वारा अपनाया जाता है — लेकिन इस मामले में एक 3 साल की बच्ची को संथारा दिलाना न केवल पहली बार हुआ, बल्कि गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स द्वारा इसे प्रमाणित भी किया गया।
क्या कहते हैं माता-पिता?
बच्ची के पिता पीयूष जैन और मां वर्षा जैन ने बताया कि जनवरी 2025 से उनकी बेटी के सिर में तेज़ दर्द शुरू हुआ था, फिर ब्रेन ट्यूमर की पुष्टि हुई। मुंबई में ऑपरेशन के बाद कुछ समय के लिए सुधार हुआ, लेकिन मार्च 2025 में ट्यूमर दोबारा उभर आया।
21 मार्च को बच्ची को एक जैन मुनि डॉ. राजेश मुनि महाराज के पास ले जाया गया, जिन्होंने बच्ची की हालत देख कर ‘संथारा’ की सलाह दी। माता-पिता ने कहा:
“अगर हमारी बेटी अस्पताल में मरती तो वो बस एक मौत होती, लेकिन संथारा के माध्यम से उसकी मृत्यु एक धार्मिक और शांतिपूर्ण प्रक्रिया बनी।“
बाल आयोग ने भेजा नोटिस
इस पूरे मामले ने मध्य प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग का ध्यान खींचा है। आयोग ने इंदौर के कलेक्टर को नोटिस भेजकर पूछा है कि:
क्या संथारा की प्रक्रिया में बच्ची की सहमति या समझ शामिल थी?
क्या यह धार्मिक निर्णय माता-पिता की ओर से थोपा गया?
क्या मेडिकल विकल्प खत्म हो चुके थे?
आयोग का कहना है कि किसी नाबालिग के साथ धार्मिक रिवाज के तहत ऐसा निर्णय लेना बाल अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है।
धार्मिक पक्ष क्या कहता है?
डॉ. राजेश मुनि, जो 108 बार संथारा दिलाने और इस विषय पर पीएचडी का दावा करते हैं, कहते हैं:
“बच्ची की हालत बेहद गंभीर थी। माता-पिता ने खाने-पीने के नियमों को लेकर पूछा, और मैंने कहा कि ज़रूरत हो तो दिया जा सकता है।“
“यह पूरी प्रक्रिया उनकी सहमति और समझ से हुई थी।“
ऑल इंडिया जैन समाज के अध्यक्ष रमेश भंडारी का भी कहना है:
“संथारा कोई जबरन नहीं दिलाया जाता। यह तब होता है जब चिकित्सा और जीवन की सभी राहें बंद हो जाती हैं।“हमने तो इस रिवाज के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट में भी केस लड़ा है।“
क्या बच्ची संथारा के लिए योग्य थी?
इस घटना ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं:
क्या एक 3 साल की बच्ची ‘संथारा’ जैसी गूढ़ प्रक्रिया को समझ सकती है?
क्या यह व्रत उसकी ‘स्वतंत्र इच्छा’ थी या धार्मिक-सामाजिक दबाव?
क्या धर्म के नाम पर बाल चिकित्सा अधिकारों का उल्लंघन हुआ?
धर्म, अधिकार और संवेदनशीलता के बीच संतुलन
इस पूरे मामले ने भारत में धर्म और कानून की सीमाओं को फिर से चर्चा में ला दिया है। एक ओर माता-पिता की आस्था और धार्मिक परंपराएँ हैं, तो दूसरी ओर एक मासूम बच्ची के बाल अधिकार और जीवन की मूल भावना।
क्या यह श्रद्धा थी या शोषण की शुरुआत? यह तय करना अब कानूनी जांच और सामाजिक विमर्श का विषय है।
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