मोहम्मद वकार से मिली जानकारी के साथ Hello UP ब्यूरो : लखनऊ की गलियों में कभी जहां ज़रदोज़ी के सूत की खनक थी, आज वहां सन्नाटा है। वो कारीगर जो नवाबी दस्तानों में सोने की कढ़ाई बुनते थे, अब ई-रिक्शा चला रहे हैं। कुछ किराए के फेरी वाले बन गए हैं, और कुछ बस इंतज़ार में हैं — कि शायद सरकार कभी उन्हें देखे।
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कारीगरों की मासिक आय का वितरण:
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35% की आय ₹5000 से कम
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45% की आय ₹5000–₹7000
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15% की आय ₹7000–₹10000
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मात्र 5% की आय ₹10,000 से अधिक
रोजगार की प्रकृति:
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49% दिहाड़ी मज़दूर
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43% ठेके पर काम करने वाले
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8% स्वतंत्र (फ्रीलांस/स्व-नियोजित)
80% कारीगर ₹7000 या उससे भी कम में गुज़ारा कर रहे हैं — जिसमें महंगाई, किराया, बच्चों की फीस, और दवा तक नहीं आती।
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सरकार से सीधा सवाल:
“हुनर हाट” और “ODOP” स्कीम के करोड़ों कहां गए?
कितने कारीगरों को स्वरोज़गार लोन मिला?
क्यों ‘मेक इन इंडिया’ में ‘हाथ की कारीगरी’ अदृश्य है?
क्या आपको मालूम है कि इन कारीगरों के बच्चे अब ट्यूशन छोड़, खुद छोटे-मोटे काम कर रहे हैं?
सरकार का ‘हुनर हाट’, हुनरबंदों के बिन सजावट!
सरकार की योजनाएं कागज़ों पर सुंदर हैं—’हुनर हाट’, ‘वोकल फॉर लोकल’, ‘ODOP (One District One Product)’। मगर ज़मीन पर न प्रमोशन है, न प्लेटफॉर्म। कारीगरों के बच्चे आज ऑनलाइन फूड डिलीवरी बॉय बन रहे हैं, क्योंकि डिज़ाइनर जूतियों की सेल्फी को इंसाफ नहीं मिलता।
Ground Reality:
“हमने सोचा था कि ये कला हमारी पहचान बनेगी, अब तो पेट पालने के लिए ई-रिक्शा ही चलाना पड़ता है।”
— नसीर भाई, कारीगर, चौक इलाका, लखनऊ“हमरे बाबूजी इसी जरदोजी से चार बच्चों को पढ़ाए। अब हम ई रिक्शा चला रहे,” – कहते हैं 38 वर्षीय इरशाद, जिनकी उंगलियों में कभी कारीगरी की नफासत थी, अब स्टीयरिंग थामे रोज़ 14 घंटे की मशक्कत करते हैं।
निर्यात और वैश्विक मांग
जरदोजी उत्पादों की वैश्विक मांग होने के बावजूद, कारीगरों को उचित मूल्य और बाजार तक पहुंच नहीं मिल पा रही है।
Call to Action
सरकार को जवाब देना होगा। अगर आप चाहते हैं कि ज़रदोज़ी दोबारा ज़िंदा हो, तो इस रिपोर्ट को शेयर करें। हुनरमंद हाथों की मेहनत को भी वोट की कीमत दीजिए। जिस लखनऊ को नवाबी तहज़ीब और नाज़ुक कारीगरी ने पहचान दी, वहां के दस्तकार अब बेरोजगारी और बेबसी की कढ़ाई में उलझ गए हैं। सरकार को अपने ‘ODOP’ के फ्रेम से बाहर झांक कर देखना होगा कि ‘प्रोडक्ट’ तब तक नहीं बचता जब तक ‘प्रोड्यूसर’ भूखा है।
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