डॉ॰ बाबासाहब आम्बेडकर केवल संविधान निर्माता नहीं थे, बल्कि वे एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपने जीवन के हर पड़ाव पर अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किया और समानता की मशाल जलाए रखी। उनके जीवन से जुड़े कई किस्से आज भी लाखों लोगों को प्रेरणा देते हैं। आइए जानें उनके जीवन के कुछ ऐसे किस्से जो हमें सोचने और सीखने पर मजबूर कर देते हैं।
स्कूल का पानी – पहली बार भेदभाव का अहसास
बचपन में भीमराव जब स्कूल में पढ़ते थे, तो उन्हें प्यास लगने पर खुद नल से पानी नहीं लेने दिया जाता था। शिक्षक या अन्य ऊंची जाति के लोग ही उन्हें पानी पिलाते थे — वो भी तब जब कोई तैयार हो। एक बार जब कोई पानी देने नहीं आया, तो उन्होंने पूरी छुट्टी तक पानी नहीं पिया।
सीख : सामाजिक भेदभाव की पीड़ा उन्होंने बचपन से ही झेली, जो उनके जीवन दर्शन की नींव बनी।
बड़ौदा में अपमान – लेकिन आत्मसम्मान नहीं छोड़ा
लंदन से पढ़ाई पूरी कर भारत लौटने के बाद वे बड़ौदा राज्य में नौकरी करने गए। पर वहाँ एक “अछूत” के रूप में उन्हें ठहरने को होटल नहीं मिला। किसी पारसी धर्मशाला में रुके, लेकिन जब उनकी जाति पता चली, तो उन्हें अपमानित कर बाहर निकाल दिया गया
सीख : पढ़ा-लिखा होना भी तब सामाजिक सम्मान की गारंटी नहीं था — यही अनुभव उन्हें जाति उन्मूलन के लिए आंदोलनकारी बना गया।
महाड़ सत्याग्रह – पानी तक पहुंच का आंदोलन
1927 में उन्होंने महाड़ शहर में चवदार तालाब से पानी पीने का ऐतिहासिक सत्याग्रह किया। यह पहला अवसर था जब अछूतों ने सार्वजनिक जलस्रोतों पर अपना अधिकार जताया।
यह आंदोलन भारतीय इतिहास में दलित अधिकारों की पहली स्पष्ट आवाज़ था।
कालाराम मंदिर प्रवेश – “भगवान सबके हैं” का संदेश
1930 में नासिक के कालाराम मंदिर में दलितों को प्रवेश नहीं दिया जाता था। डॉ॰ आम्बेडकर ने हजारों अनुयायियों के साथ मंदिर प्रवेश आंदोलन किया और धर्म के नाम पर होने वाले भेदभाव का विरोध किया।
उद्धरण: “यदि भगवान को मंदिर में नहीं आने देना है, तो फिर वह कैसा भगवान है?”
ब्राह्मण पंडित से व्रतबंध संस्कार कराना
एक बार डॉ॰ आम्बेडकर ने अपने बेटे यशवंत के लिए उपनयन संस्कार (व्रतबंध) करवाने का निर्णय लिया और इसके लिए एक ब्राह्मण पंडित को बुलाया। पंडित जी ने इनकार कर दिया कि वह ‘अछूत’ के बेटे को जनेऊ नहीं पहना सकता।
डॉ॰ साहेब ने कहा, “जब मेरी जाति से पंडित नहीं बन सकता, तो आपके धर्म की ज़रूरत ही नहीं।” यह घटना उनके **बौद्ध धर्म अपनाने की ओर बढ़ते कदमों में से एक थी।
धम्म दीक्षा – लाखों के साथ धर्म परिवर्तन
14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने नागपुर में 5 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया। इस ऐतिहासिक क्षण पर उन्होंने 22 प्रतिज्ञाएँ लीं — जिनमें जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवाद और हिंदू धर्म के भेदभावकारी सिद्धांतों को अस्वीकार कर दिया गया।
सीख : यह सिर्फ धर्म परिवर्तन नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति थी।
डॉ॰ बाबासाहब आम्बेडकर का जीवन कठिनाइयों से भरा जरूर था, लेकिन हर चुनौती को उन्होंने संघर्ष और विचारों से परास्त किया। उनके जीवन के ये किस्से केवल इतिहास नहीं हैं, बल्कि आज के समय में समानता, सम्मान और मानवाधिकार की मिसाल हैं।