
भारत ने चाँद पर कदम रख दिए। वैज्ञानिकों की मेहनत और राष्ट्र का गौरव – हर जगह तारीफ़ हो रही है। लेकिन एक सवाल बार-बार कचोटता है – क्या यही वो देश है जहाँ अब भी किसी इंसान को सिर्फ उसकी जाति के आधार पर नीचा दिखाया जाता है?
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पढ़े-लिखे समाज की चुप्पी क्यों?
हम गर्व से कहते हैं कि हम “शिक्षित” हैं, आधुनिक हैं। लेकिन जब हमारे आस-पास दलितों को मंदिर में घुसने से रोका जाता है, शादी में बेइज्जत किया जाता है, या नल से पानी लेने पर मारपीट होती है – तब हम चुप क्यों हो जाते हैं?
कहाँ हैं हमारे धर्मगुरु?
जब बात धर्म की आती है, तो प्रवचन देने वाले मंचों पर आते हैं। लेकिन जब धर्म के नाम पर दलितों को अपमानित किया जाता है, तो ये धर्मगुरु खामोश क्यों हो जाते हैं? क्या इंसान की गरिमा से बड़ा कोई धर्म हो सकता है?
संविधान ने बराबरी दी, समाज ने नहीं
भारतीय संविधान हर नागरिक को समान अधिकार देता है। लेकिन हमारे व्यवहार में आज भी ऊँच-नीच, जात-पात और घृणा भरी पड़ी है। कानून बदल गए, पर दिल नहीं।
अब भी वक़्त है – खामोशी तोड़िए
समाज को बदलने के लिए ज़रूरी है कि हम मौन तोड़ें। जब भी किसी के साथ जाति के आधार पर अन्याय हो – वहाँ आवाज़ उठाना ही असली “शिक्षा” और “धर्म” है।
भारत अगर चाँद पर पहुँच सकता है, तो जातिवाद जैसे मानसिक अंधकार से भी बाहर निकल सकता है। लेकिन इसके लिए रॉकेट नहीं, साहस की ज़रूरत है।
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