
भारतीय जनता पार्टी के सांगठनिक चुनाव देश के कई राज्यों में रफ्तार पकड़ चुके हैं। मध्य प्रदेश से लेकर तेलंगाना तक सबको नया कप्तान मिल गया, पर उत्तर प्रदेश में तो जैसे कुर्सी किसी जादुई गुफा में छिपा दी गई हो। भूपेंद्र चौधरी का कार्यकाल समाप्त हो गया, लेकिन उत्तराधिकारी का नाम आते-आते लोकसभा का दूसरा टर्म न आ जाए, इसकी चिंता पार्टी को खुद है।
भारी है कुर्सी, इसलिए हल्के में नहीं लिया जा सकता
उत्तर प्रदेश कोई छोटा मोटा राज्य नहीं है। ये 20 करोड़ लोगों वाला लोकतांत्रिक रबर बैंड है—जिसे खींचो तो हर जाति, हर वर्ग, हर पंचायत तक पहुंच जाता है। इसलिए बीजेपी और आरएसएस दोनों ऐसी शख्सियत की तलाश में हैं जो…
योगी जी की आंखों का तारा हो,
अमित शाह के दिमाग का आराम हो,
और जातीय समीकरण का परम समाधान हो।
इतनी शर्तों के बाद तो शादी-ब्याह भी रुक जाए, लेकिन बीजेपी अध्यक्ष मिलना चाहिए।
कुर्सी की रेस में कौन-कौन?
धर्मपाल सिंह लोधी – लोधी समाज का लाड़ला
लोधी वोट बैंक को साधने के लिए धर्मपाल सिंह का नाम खूब चल रहा है। छवि एकदम साफ-सुथरी, लेकिन सवाल ये है—“क्या योगी जी उन्हें गले लगाएंगे या आरएसएस खांसी कर देगा?”
स्वतंत्रदेव सिंह – दोबारा परीक्षा की तैयारी में
एक ज़माने में प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं स्वतंत्रदेव। सीएम योगी के खास हैं, पर पार्टी को डर है कि दोबारा वही चेहरा लाना कहीं 2027 का पेपर लीक न कर दे।
रामशंकर कठेरिया – दलित कार्ड ऑन द टेबल
अबकी बार दलित समीकरण का ब्रह्मास्त्र भी आजमाया जा सकता है। अगर कठेरिया बनते हैं अध्यक्ष, तो विपक्ष कहेगा, “देखो, बीजेपी भी अब पॉलिटिकल साइंस पढ़ रही है।”
आखिर देरी क्यों हो रही है?
सवाल ये नहीं कि नाम क्यों नहीं तय हो रहा, सवाल ये है कि नाम कोई तय कर भी सकता है या नहीं?
RSS की अपनी डाइरी है, योगी जी का अपना विज़न है, और दिल्ली दरबार की अपनी गणित। इन तीनों को एक ही फ्रेम में बैठाना है—गुजराती थाली में अवधी स्वाद लाना है।
समझिए यूपी की राजनीति: नॉर्थ इंडिया का पॉलिटिकल जंबो जेट
उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष की कुर्सी कोई मामूली कुर्सी नहीं। ये वो सिंहासन है जो अगर गलत हाथों में चला गया तो “2027 में रिपोर्ट कार्ड पर लाल निशान” आ सकता है। भाजपा की यही चिंता है कि सामाजिक समीकरण भी टिके रहें और राजनैतिक संतुलन भी। मतलब—सबको खुश रखो, लेकिन चेहरा ऐसा हो जो कैमरे में भी अच्छा लगे।
भारतीय राजनीति में जब भी कोई पद खाली होता है, तो ज्यादा सिरदर्द वहां नहीं होता जहां कुर्सी खाली होती है, बल्कि वहां होता है जहां फैसले लिए जाते हैं।
उम्मीद है बीजेपी जल्द ही कोई ऐसा नाम तय करेगी जो यूपी की राजनीति को सुलझा दे, न कि और उलझा दे। वरना कार्यकर्ता सोचने लगे हैं—“भाई, कहीं कुर्सी पर ‘No Vacancy’ का बोर्ड तो नहीं लग गया?”