लखनऊ। ये बातें सभी के दिमाग में कभी ना कभी जरूर आती है। दरअसल नेताजी का हिटलर से मिलने का मतलब हिटलर का समर्थन करना नहीं था।
“दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है” इस कहावत पर यकीन करके वे हिटलर से मिलने गए थे उससे पहले वह कलकत्ता से अंग्रेजों की हिरासत से निकल कर अफगानिस्तान होते हुए नकली आईडी पर जर्मनी पहुंचे थे। जर्मनी कुछ दिन रहने के बाद उन्होंने हिटलर से मिलने का फैसला किया था। जबकि वे इंडियन रीजन, टाइगर रीजन और आजाद हिन्द फौज के नाम से लगभग 1000 लोगों की एक सेना बना चुके थे।
इससे पहले 1933 में भी सुभाष चंद्र बोस जब जर्मनी में थे तो उन्होंने हिटलर से मिलने की कोशिश की थी। लेकिन तब हिटलर ने मिलने से इनकार कर दिया था।
पर जब 1941 में विश्व युद्ध छिड़ चुका था और जर्मनी ब्रिटेन के खिलाफ लड़ रहा था इस दौरान नेताजी ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ रहे भारतीय क्रांतिकारियों की मदद के लिए हिटलर से मदद की गुजारिश की और हिटलर को मिलने के लिए कहा।
विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका, ब्रिटिश, फ्रांस और चीन जहां एक तरफ थे तो दूसरी तरफ जर्मनी, इटली, जापान आदि देश थे। सुभाष चंद्र बोस ने उस समय मेरे दुश्मन का दुश्मन मेरा दोस्त है वाले सिंपल रूल को फॉलो किया और हिटलर से मिलने का फैसला किया, जबकि हिटलर उस समय भारतीयों को यहूदियों और अफ्रीकियों के समकक्ष समझता था।
अपनी किताब मीन कॉम्फ में हिटलर ने लिखा था कि भारत किसी भी अन्य देश के नियंत्रण में होने से बेहतर है कि ब्रिटिश शासन में रहे। परन्तु विश्व युद्ध के दौरान स्थितियां काफी बदल चुकी थी।
अंततः जब 29 मई 1942 को नेताजी हिटलर से मिलने उनके आवास पर पहुंचे तो हिटलर ने पहले अपने बॉडी डबल को उनसे मिलने भेज दिया वह बिल्कुल हिटलर की तरह ही दिखता था उसे पहचानना बेहद मुश्किल था उसने नेताजी के पास आकर कहा मैं हिटलर हूं और अपना हाथ आगे बढ़ाया नेताजी ने भी हाथ आगे बढ़ाया और कहा मैं सुभाष हूं भारत से..
लेकिन आप हिटलर नहीं है।
यहभी पढ़ें: सोनू-मोनू गैंग का यूपी के मुख्तार अंसारी से संबंध, 6 लाख में खरीदी थी AK-47
इसके बाद जब वह चला गया तो एक दूसरा व्यक्ति आया उसने आने के बाद थोड़ी और जोर से हाथ बढ़ाकर कहा “मैं हिटलर हूं” और इस बार फिर नेताजी ने कहा मैं सुभाष हूं भारत से..
लेकिन आप हिटलर नहीं हो सकते।
मैं यहां केवल हिटलर से ही मिलने आया हूं।
तीसरी बार खुद हिटलर आकर उनके सामने चुपचाप खड़ा हुआ और उन्हें बड़े ध्यान से देख रहा था तब नेताजी उठे और उन्होंने कहा मैं सुभाष चंद्र बोस भारत से आपसे मिलने आया हूं मैं चाहता हूं हाथ मिलाने से पहले आप अपने दस्ताने उतार दे मैं अपनी दोस्ती के बीच में दीवार नहीं चाहता हूं।
हिटलर बेहद कठोर और चालाक स्वभाव का था, पर नेताजी से मिलने के बाद निश्चित ही प्रभावित हुआ और उनसे बात करने को तैयार हो गया।
बाद में हिटलर ने यह पूछा कि आपने मुझे कैसे पहचाना?
तो नेताजी ने कहा कि नियम यह होता है कि जो मिलने जाता है वह हाथ मिलाता है और पहले दोनों आकर मुझसे पहले ही हाथ मिलाने लगे हिटलर उनके सेंस ऑफ ह्यूमर पर चकित था। उसके बाद में वार्ता शुरू हुई नेताजी जानते थे कि हिटलर भारतीयों के बारे में क्या सोचता है इसलिए वह किसी तरीके की सैन्य सहायता नहीं देगा इसलिए उन्होंने सैन्य सहायता नहीं मांगी बल्कि उनको उनकी किताब में भारतीयों के बारे में जो लिखा गया था उसके बारे में याद दिलाया तब हिटलर ने बातों को टालते हुए आनाकानी करते हुए इन बातों के लिए दुख जताया।
इसके बाद नेताजी ने नॉर्थ अफ्रीका में गिरफ्तार किए गए कुछ भारतीय कैदियों की भी रिहाई की मांग की थी पहले तो वह इस बात से सहमत नहीं हुआ लेकिन नेताजी के बार-बार जोर देने पर वह कैदियों को रिहा करने के लिए राजी हो गया। इसके बाद फिर नेताजी ने ब्रिटिश शासन से लड़ने और भारत को आजाद कराने के लिए जर्मनी में 1000 आदमियों से अधिक अपनी सेना की बात हिटलर को बताई।
इसके बाद नेताजी ने उनसे जर्मनी से जापान जाने की अपनी इच्छा को बताया क्यों मार्च 1942 में उनकी सेना ने जापान की मदद से पोर्ट ब्लेयर पर कब्जा कर लिया था। हिटलर भी ये जानता था इसलिए वह भी इस बात से पूरी तरह सहमत हुआ कि नेता जी को जापान जाकर आगे की रणनीति बनानी चाहिए। वह नेताजी की सुरक्षा को लेकर उनके हवाई जहाज से जाने के खिलाफ था। इसलिए उसने नेताजी को पनडुब्बी से जाने की सलाह दी और खुद यह जिम्मेदारी ली कि वह जल्दी ही इसकी व्यवस्था भी करेगा।
उसने अपने हाथ से एक नक्शा बनाया उनकी यात्रा का रास्ता तय किया।
हिटलर के हिसाब से मात्र 6 हफ्ते में यात्रा पूरी करनी थी, लेकिन नेताजी को यात्रा पूरी करने में 3 महीने लग गए थे।
9 फरवरी 1943 को जर्मनी के कील बंदरगाह से यू- 180 नामक पनडुब्बी से नेताजी ने आबिद हसन के साथ अपना सफर शुरू किया।
आबिद ने बाद में बताया है कि पनडुब्बी में घुसते ही डीजल की महक से हमारा मन खराब हो गया था हर चीज से डीजल की महक आ रही थी और हम यह सोचकर परेशान थे कि अगले कई महीने हमें इसी पनडुब्बी में गुजारने होंगे।
इस पनडुब्बी को बाद में जर्मनी नौसेना में शामिल कर लिया गया था। इस यात्रा के दौरान उनके कमांडर वार्नर मुसेन वर्ग थे। इसके एक साल बाद सन 1944 अगस्त में इस पनडुब्बी को प्रशांत महासागर में डुबो दिया गया था। जिससे इसमें सवार सभी 56 सैनिक मारे गए थे।
यह भी पढ़ें:अवैध नागरिकों की अमेरिका से होंगे बाहर, सबसे ज्यादा अवैध नागरिक किस देश के
उस पनडुब्बी में चलने फिरने की ज्यादा जगह न थी दिन के समय में पनडुब्बी समुद्र के अंदर चलती थी और रात में बैटरी चार्ज करने के लिए उन्हें पानी से ऊपर आना पड़ता था उस दौरान वे लोग पनडुब्बी की छत पर आते और अपने हाथ पैर थोड़ी देर फैला लेते थे।
इस सफर में आबिद ने टाइपराइटर ले लिया था और नेताजी ने अपनी किताब “द इंडियन स्ट्रगल” में कुछ फेरबदल किए थे।
पूरे सफर के दौरान हुए जापान के प्रधानमंत्री और अधिकारियों से किस तरह से उन्हें बात करना है उन्होंने ये तैयारी की और आबिद से कहा कि वे जापान के प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो की भूमिका निभायें और उनसे उनकी योजना और इरादों के बारे में तीखे सवाल पूछें।
पूरी यात्रा के दौरान नेताजी ने यह योजना बनाई कि जापान की सरकार और अधिकारियों से किस तरह से बातें करनी है?
दरअसल कील बंदरगाह से पनडुब्बियों का एक काफिला रवाना हुआ था नेताजी की पनडुब्बी उसे काफिले का ही एक हिस्सा थी कील से कुछ दूरी तक तो जर्मन नौसेना का समुद्र पर पूरा नियंत्रण था इसकी वजह से जर्मनी पनडुब्बी के काफिले को पानी की सतह के ऊपर चलने में कोई दिक्कत नहीं हुई थी, पर नार्वे की दक्षिणी किनारे के पास ये काफिला दो हिस्सों में बट गया यहां से सुभाष बोस की पनडुब्बी की अकेली यात्रा शुरू हुई।
आगे चलकर 18 अप्रैल 1943 को उन्होंने एक ब्रिटिश मालवाहक जहाज को टारपीडो करके डुबो दिया।
आबिद लिखते हैं कि यह कभी ना भुलाए जाने वाला दृश्य था ऐसा लगता था जैसे पूरे समुद्र में आग लग गई हो हमने देखा कि जलते हुए जहाज में कुछ भारतीय और मलेशियाई देखने वाले लोग भी मौजूद थे लेकिन एक बड़ी लाइव वोट में सिर्फ गोरे लोगों को ही बैठाया गया और बाकी लोगों को जलते हुए जहाज में उनके भाग्य के सहारे छोड़ दिया गया था।
इसके बाद एक और ब्रिटिश युद्ध पोतक को देखकर कमांडर मुसेनवर्ग ने आदेश दिया कि इसे टारपीडो कर दो लेकिन पनडुब्बी से टारपीडो करने के दौरान नौसैनिक से कुछ गलती हुई और टारपीडो फायर की बजाए पनडुब्बी पानी के ऊपर आ गई और मुसेन पनडुब्बी को बहुत मुश्किल से पानी के नीचे ला पाए।
इस पूरे वाक्ये के दौरान मेरे तो पसीने छूट गए पर नेताजी आराम से बैठे हुए अपने भाषण की तैयारी में लगे हुए थे।
अप्रैल के अंत में 1943 में नेताजी की पनडुब्बी हिंद महासागर में दाखिल हुई, इसी बीच 20 अप्रैल 1943 को एक जापानी पनडुब्बी आई-29 पेनांग से रवाना हुई, इसका नेतृत्व कैप्टन मसाओ तराओका का कर रहे थे वहां स्थानीय भारतीय लोगों को इस बात पर हैरानी हुई थी कि रवाना होने से पहले इस पनडुब्बी के चालक दल ने इसमें भारतीय खाने की चीज क्यों खरीद कर रखी हैं?
मेडागास्कर के समुद्र में दूसरे विश्व युद्ध का असर कुछ काम था इसलिए यह तय किया गया कि यहां पर नेताजी को जर्मन पनडुब्बी से जापानी पनडुब्बी में ले जाया जाएगा यहां दोनों पनडुब्बियों एक दूसरे के साथ-साथ कुछ देर तक चली। और 27 अप्रैल को तैयार कर एक जर्मन अफसर और एक सिग्नल मैन जापानी पनडुब्बी पर पहुंचे।
इसके बाद 28 अप्रैल को नेताजी और आबिद हुसैन को एक रबर की नाव में बैठाकर यू – 180 से आई -29 पनडुब्बी पर ले जाया गया। इस विश्व युद्ध के दौरान यह पहली घटना थी कि यात्रियों को एक पनडुब्बी से दूसरी पनडुब्बी पर ले जाया गया था।
आबिद कहते हैं कि जापानी पनडुब्बी जर्मन पनडुब्बी से काफी बड़ी थी और हमें यहां आकर ऐसा लगा कि जैसे हम अपने घर आ गए हो इसके कमांडर मसाओ तरोओका ने नेताजी के लिए अपना केबिन खाली कर दिया और जापानी रसोइयों ने पेनांग में खरीदे मसाले से नेताजी के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाए और उन्हें दिन में चार बार खाना खिलाते थे।
जापानी पनडुब्बी के कमांडर को आदेश दे कि वे किसी भी हालत में विरोधियों से ना उलझे और सुभाष चंद्र बोस को सुरक्षित सुमात्रा ले जाएं। पूरी यात्रा के दौरान हमें कोई भी परेशानी नहीं हुई सिर्फ एक भाषा की दिक्कत थी नेताजी और मैं दोनों जर्मन तो समझ लेते थे लेकिन जापानी भाषा हमारे सर के ऊपर से गुजर जाती थी और पनडुब्बी में कोई भी दुभाषिया मौजूद नहीं था।
13 मई 1943 को यह पनडुब्बी सुमात्रा के उत्तरी तट सवांग पर पहुंची ।
पनडुब्बी से निकलते समय उन्होंने चालक दल के सभी सदस्यों के साथ तस्वीर खिंचवाई और उसे पर अपना ऑटोग्राफ देते हुए संदेश लिखा कि इस पनडुब्बी पर यात्रा करना एक सुखद अनुभव था मेरा मानना है कि हमारी जीत और शांति की लड़ाई में यह यात्रा एक मील का पत्थर साबित होगी।
सवांग पहुंचने के दो दिनों के आराम के बाद नेताजी एक जापानी युद्ध विमान में बैठकर टोक्यो गए और वहां उनको राजमहल के सामने सबसे मशहूर इंपिरियल होटल में ठहराया गया वहां उन्होंने जापानी नाम मातसुदा के नाम से चेक इन किया। कुछ दिनों के बाद उनके जियाउद्दीन, मज़ोटा और मातसुदा नाम पीछे छूट गए। और एक दिन भारतीय रेडियो पर लोगों को उनकी आवाज सुनाई दी कि
“मैं सुभाष चंद्र बोस पूर्वी एशिया से अपने देशवासियों को संबोधित कर रहा हूं”
और इसके बाद 30 दिसंबर 1943 को नेताजी ने पोर्ट ब्लेयर पर तिरंगा फहराया था।