रेट्रो रिव्यू: शोले – जब सिनेमा गोली से नहीं, डायलॉग से चलता था

साक्षी चतुर्वेदी
साक्षी चतुर्वेदी

1975 की इस महागाथा को ‘फिल्म’ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा है। ‘शोले’ कोई मूवी नहीं, बल्कि हमारे घरों की दीवारों पर टंगी हुई याद है। जय-वीरू की दोस्ती, ठाकुर की चुप्पी, और गब्बर का खौफ – सब कुछ इतना ज़िंदा है कि लगता है गब्बर अभी भी पूछ रहा है – “कितने आदमी थे?”

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जय-वीरू ही असली ब्रोमांस थे

बिना जैकेट पहने, बिना बाइक हेलमेट लगाए, रामगढ़ की गलियों में बाइक दौड़ाते जय और वीरू बॉलीवुड के पहले ‘ब्रोमांस’ कपल थे। इनकी दोस्ती इतनी गाढ़ी थी कि लगा ही नहीं कि बसंती के पास भी कोई चांस है।

गब्बर – विलेन जो हीरो को भी overshadow कर गया

अमजद खान ने जो किया, वो विलन नहीं, पूरी इंडस्ट्री का syllabus बदल गया। “इतना सन्नाटा क्यों है भाई?” आज भी पार्टी में ये डायलॉग मारो, और लोग पेप्सी छोड़ के सुनने लगते हैं।

ठाकुर साहब – जिनके पास हाथ नहीं थे, पर पंच लाइन थी!

अगर कोई आज भी बिना एक्शन के डर दिखा सकता है, तो वो ठाकुर साहब हैं। जिंदा इंसान की सबसे डेडली चुप्पी – ठाकुर का रिवेंज प्लान, जितना स्लो था, उतना ही सटिस्फाइंग।

बसंती और धोबीघाट का घोड़ा

“बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना” – लेकिन बसंती ने घोड़े को नचवाया! और फिल्म का क्लाइमेक्स ऐसा कि धर्मेंद्र ने जितना एक्टिंग में बहाया, उतना पसीना हम आज तक gym में नहीं बहा पाए।

क्यों अभी भी “शोले” ज़िंदा है?

OTT हो या IMAX, शोले आज भी रिलेवेंट है। क्योंकि कहानी नहीं बदली, किरदार नहीं बदले – बस रामगढ़ अब ट्विटर पे ट्रेंड करने लगा है।

Moral of the Story:

अगर आपके पास दो दोस्त हों, एक बिना हाथ वाला गॉडफादर हो, और एक गब्बर जैसा दुश्मन – तो समझ लीजिए आप शोले के हीरो हैं।

Final Verdict:

रेट्रो स्टार रेटिंग: 5/5 गोलियों वाली फिल्म!
अब तो रामगढ़ में भी Netflix आ गया होगा, लेकिन वहां अभी भी गब्बर राज करता है।

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