
अक्षय तृतीया के शुभ मौके पर जहां आम लोग धन कमाने की आस में पूजा कर रहे थे, वहीं बंगाल की राजनीति में क्रोध की आरती चल रही थी। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जगन्नाथ मंदिर का लोकार्पण कर दिया – भगवान को तो प्रसन्नता हुई होगी, लेकिन बीजेपी को अपच!
“मंत्री जी को नहीं पहचाना तो होटल में छापा पड़वा दिया – इगो का ‘फुल प्लेट’ मामला!”
ममता का तंज: “इतना ग़ुस्सा क्यों है भई?”
ममता दीदी ने बीजेपी से पूछा,
“हम पुरी के मंदिर की इज्ज़त करते हैं, और दीघा के भी। काली मंदिर हर जगह है, तो जगन्नाथ क्यों नहीं हो सकता?”
मतलब – आपके भक्ति का कॉपीराइट थोड़ी है!
उधर बीजेपी नेताओं ने इसे “धार्मिक भावनाओं से छेड़छाड़” बता दिया। अब कौन समझाए कि भगवान को घर चाहिए, बहस नहीं।
राजनीति का ‘प्राण प्रतिष्ठा’ अलग चल रहा था
जब दीदी मंदिर में आरती कर रही थीं, बीजेपी नेता शुभेंदु अधिकारी 30 किलोमीटर दूर अलग संस्कृति रक्षा सम्मेलन कर रहे थे। मानो भगवान जगन्नाथ खुद भ्रमित हों – “किधर जाऊं प्रभु?”
मंदिर पर राजनीति – और भगवान भी सोचें, मेरी गलती क्या थी?
इस पूरे घटनाक्रम में एक बात तो तय है — मंदिर चाहे कहीं भी बने, वोट बैंक की घंटियां हर पार्टी में बजती हैं। अब आगे देखना ये है कि भगवान का ‘जनसमर्थन’ किसे मिलता है – दीदी को या दीदी से नाराज़ देवताओं को?
भगवान को लोकसभा चुनाव लड़ना चाहिए, कम से कम सभी दल मिलकर एक जगह तो झुकेंगे!
जब पड़ोसी बोले – “मेरी दीवार गिरे तो गिरे, तेरी बकरी तो मरे ही मरे!” — कानून क्या कहता है?