
महाराष्ट्र की राजनीति फिर से भाषाई सड़ांध से महक उठी है। पालघर के विरार इलाके में एक उत्तर भारतीय ऑटो ड्राइवर की ‘मैं मराठी नहीं बोलूंगा’ वाली लाइन उसे ‘लाठी-पाठशाला’ तक ले गई।
वीडियो में साफ देखा गया कि कैसे मनसे और शिवसेना (UBT) के कार्यकर्ताओं ने ऑटो ड्राइवर की भीड़ में बेइज्जती और पिटाई की — और हां, सबके सामने “मराठी में माफी” भी दिलवाई।
वीडियो वायरल हो चुका है, इंसान की गरिमा नहीं।”
” यहां मराठी बोलो” – भीड़ का कानून ऑन कैमरा
ड्राइवर कहता है — “मैं हिंदी बोलूंगा, भोजपुरी बोलूंगा, मराठी नहीं आती।”
बस, इतना कहना था कि पालघर की सड़कों पर ‘जबरन भाषा सिखाओ योजना’ लागू हो गई।
बात यहीं नहीं रुकी — कैमरों के सामने उसे कान पकड़कर, महिला के पैर छूकर और मराठी में माफी मांगकर अपनी जान बचानी पड़ी।
यह संविधान का अनुच्छेद नहीं, “गली का गुस्सा” था — जिसे कुछ संगठनों ने गर्व से शूट किया।
पुलिस: “हम संज्ञान में हैं, पर शिकायत की प्रतीक्षा भी संस्कृति है!”
वीडियो वायरल है, लोग सड़कों पर थे, कार्यकर्ता कैमरे में हैं — लेकिन पुलिस अब भी शिकायत का इंतज़ार कर रही है।
शायद उसे “CCTV फुटेज की भावना” का अध्ययन करना बाकी है।
पालघर पुलिस का मंत्र: “जहां केस नहीं, वहां केस नहीं।”
भाषा का सवाल या पहचान की राजनीति?
यह कोई नया विवाद नहीं। महाराष्ट्र में “मराठी बनाम बाकी भाषाएं” वाला यह स्वर बार-बार चुनावों से पहले गूंजता है। मनसे और शिवसेना दोनों ही “स्थानीय पहचान” की राजनीति का इस्तेमाल लंबे समय से करते आ रहे हैं। पर अब सोशल मीडिया के दौर में, यह पहचान कैमरे की क्लिप से वॉयरल नफ़रत बन जाती है।
जब भाषा सम्मान नहीं, हथियार बन जाए
भारत एक बहुभाषी लोकतंत्र है, न कि एकभाषी गणराज्य। पालघर जैसी घटनाएं भाषा को संवेदनशील संस्कृति से निकालकर, सड़कछाप सियासत में घसीट देती हैं।
अगर आज हम यह तय करने लगे कि कौन किस राज्य में क्या बोले — तो कल शायद कोई यह भी तय करे कि कौन क्या खाए, क्या पहने और कहां जाए।
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