
अंग्रेज़ी हुकूमत ने सबसे पहली जातिगत जनगणना वर्ष 1881 में कराई थी. उसके बाद अंतिम बार पूर्ण जातिगत मतगणना वर्ष 1931 में कराई थी. इसके बाद आजाद भारत में सबसे पहली जनगणना वर्ष 1951 में हुई. लेकिन, जनगणना केवल आदिवासियों की जातियों से संबंधित थी. इसी पैटर्न पर वर्ष 1961, 1971, 1981 और 1991 में भी जनगणना हुई. यहां तक कि, 2001 में अटल सरकार के कार्यकाल के दौरान भी केवल इसी प्रकार का जनगणना सर्वे किया गया जिसे जाति पाति से परे हटकर किया गया सर्वे भी कहा जा सकता है.
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2011 में कांग्रेस सरकार द्वारा कराया गया जातिगत सर्वे
वर्ष 2011 में तत्कालीन कॉंग्रेस सरकार द्वारा केवल Socio Economic and caste सर्वे करवाया गया. लेकिन, जो आंकड़े इस सर्वे के बाद सामने आए उन्हें सार्वजनिक करने की हिम्मत आज तक तत्कालीन कॉंग्रेस सरकार में नहीं हुई है.
यदि, ऐसा लिख रहा हूँ, तो उसके बाद मुझ पर ग़ैर कॉंग्रेसी होने का या किसी और पार्टी का होने का लेबल चस्पा किया जा सकता है, जिससे मेरे द्वारा लिखे जा रहे तथ्यों पर कोई अन्तर नहीं आएगा.
आंकड़ों की जटिलता: क्यों नहीं हुआ 2011 का डेटा सार्वजनिक?
दरअसल, वर्ष 2011 में तत्कालीन कॉंग्रेस सरकार द्वारा कराए गए Socio Economic and caste सर्वे में जातिगत आंकड़े ही ऐसे उलझे हुए थे कि, इसे सरलीकृत कर पाना सम्भव नहीं था.
दो प्रमुख सवाल जो 2011 के सर्वे से उठते हैं
अब यहां 2 अहम सवाल पैदा होते हैं कि,
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आबादी के समय जो जाति संख्या थी वो बढ़ी कैसे?
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एक जाति को देश के एक राज्य में किसी अन्य जाति में वर्गीकृत किया गया है, तो उसी जाति को दूसरे राज्य में किसी अन्य जाति की श्रेणी में रखा गया है.
उक्त जानकारी होने के बाद भी यदि 2011 का सर्वे सार्वजनिक कर दिया गया होता तो देश भर में बवाल होना तय था.
जातिगत जनगणना: राजनैतिक लाभ का माध्यम
जातिगत मतगणना राजनैतिक लाभ के लिए एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है. राजनैतिक स्तर पर लाभ लेने की राजनीति के ऐसे उदाहरण बिहार की लालू सरकार और UP की मुलायम सरकार के तौर पर देखे गए हैं.
असली समस्या जातिगत गणना नहीं, उसके बाद की परिस्थिति है
दरअसल, समस्या जातिगत मतगणना में नहीं है समस्याओं का दौर जातिगत मतगणना के बाद शुरू होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता.
‘Divide and Rule’ की विरासत और आज की हकीकत
अंग्रेजों ने Divide and Rule के तहत ही जातिगत जनगणना का कार्ड खेला था, उसका दंश का असर आज तक जाति वादी संघर्षों के तौर पर गांवों में नज़र आता रहता है. लिहाज़ा, कोई भी राजनैतिक दल विशेषकर कॉंग्रेस आख़िर क्यों जातिगत जनगणना को लेकर बार बार आवाज उठाते रहे हैं, इसे समझना मुश्किल नहीं है.
वर्तमान सरकार की रणनीति और पहलगाम हमला
इस समय वर्तमान सत्तासीन पार्टी आखिर क्यों जातिगत मतगणना के लिए तैयार हुई इस पर सोचा जाना भी अनिवार्य है. जबकि, पहलगाम आतंकी हमले के बाद पूरे देशवासी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सख्त कार्यवाही होते हुए देखना चाहते हैं.
आंतरिक सहयोग, घुसपैठ और जातिगत डेटा की ज़रूरत
दरअसल, बांग्लादेश, पाकिस्तान सहित अन्य जगहों से घुसपैठिए वर्षों से भारत में आकर ना केवल बस गए थे, बल्कि, देश के संसाधनों का, सुविधाओं को भी अपनी बपौती समझने लगे थे. पहलगाम के आतंकी हमले में भी आंतरिक लोगों के सहयोग और मदद के खुलासे के बाद ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सके, इसीलिए जातिगत जनगणना अनिवार्य बताई जा रही है.
77 वर्षों बाद: क्या विकास का कोई ठोस मॉडल मिलेगा?
आज़ादी के 77 वर्ष बाद जातिगत जनगणना किए जाने से विकास का कौन सा मॉडल तैयार होगा, ये अभी भी एक निरुत्तरित प्रश्न ही है.
जातिगत जनगणना से क्या नए तथ्य सामने आ सकते हैं?
हालांकि, जातिगत जनगणना होने से कई तथ्य उजागर होने से इंकार नहीं किया जा सकता. लेकिन, आम जनता में ये मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ है और लोगों का मानना ये है कि, मौजूदा मोदी सरकार ने विपक्षी दल के हाथ से जातिगत जनगणना वाला मुद्दा छीन लिया है.
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सवाल अभी तक सवाल ही है. क्या जातिगत मतगणना वरदान साबित होगी या अभिशाप? जवाब देशवासियों को एक साथ मिलकर ही खोजना होगा.