
मोहर्रम का महीना सिर्फ शोक और इबादत का नहीं, बल्कि इतिहास, बहादुरी और इंसानियत की मिसाल है। पैगंबर मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में पूरी दुनिया में अजादारी होती है, लेकिन लखनऊ की अजादारी न सिर्फ धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक और सामाजिक परंपराओं की एक बेमिसाल मिसाल है। यहां के शाही जुलूस, मर्सिये, ताबूत और गंगा-जमुनी तहज़ीब इसे विश्वभर में खास बनाते हैं।
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तीन शाही जुलूस: नवाबी दौर की जिंदा परंपरा
लखनऊ की अजादारी की सबसे पहली पहचान हैं – तीन शाही जुलूस। 1847 में अवध के नवाब मोहम्मद अली शाह ने शुरू किया था यह रिवाज़। हाथी, घोड़े, ऊंट, शहनाई, बैंड-बाजे के साथ निकलता है ‘मोम की जारीह’ का जुलूस। आज भी बड़े इमामबाड़े से छोटे इमामबाड़े तक यह जुलूस उसी शाही अंदाज़ में निकलता है।
सात मोहर्रम की मेहंदी: शहादत से पहले की रस्म
हज़रत कासिम की शादी की याद में निकाली जाती है ‘मेहंदी’ का जुलूस। थाल में मेहंदी, गीत, मातम और महिलाओं की भारी भागीदारी इसे विशेष बनाते हैं। यह रस्म इमाम हुसैन के भतीजे की अंतिम ख्वाहिश की याद है।
आठ मोहर्रम का मशाल जुलूस: जलता हुआ मातम
मशालों के साथ निकलता है दरिया वाली मस्जिद से जुलूस। ‘या सकीना’, ‘या अब्बास’ के नारों के बीच जलती मशालें शहादत के दर्द का प्रतीक हैं। काले कपड़ों में मातम करने वालों का हुजूम दिल दहला देता है।
जारीह की नायाब कला: मोम, लकड़ी और चांदी का संगम
मोहर्रम की सजावट में ‘जारीह’ एक अनमोल कलात्मक परंपरा है। मोम की जारीह (शाही), लकड़ी की जारीह (घर), और चांदी की जारीह (नक्काशी)। यह परंपरा तैमूर लंग के ज़माने से शुरू हुई मानी जाती है।
ज़ियारतों की हमशक्ल: इराक-ईरान के दरगाहों की झलक
लखनऊ में मौजूद हैं हजरत अब्बास, इमाम हुसैन और हजरत अली की दरगाहों की प्रतिकृतियां। जो लोग इराक नहीं जा सकते, उन्हें यहां ज़ियारत की तस्सली मिलती है।
मिर्जा दबीर और मीर अनीस: मर्सिया और नोहा की परंपरा
उर्दू अदब की शानदार धरोहर हैं ये शायर। उनके मर्सिए आज भी मजलिसों में गूंजते हैं, और इमाम हुसैन की बहादुरी को शब्द देते हैं।
10 दिन, 24 घंटे मजलिसें: इबादत का सिलसिला
सुबह से लेकर रात तक, लखनऊ में मजलिसों की कोई कमी नहीं। घरों, इमामबाड़ों और सार्वजनिक जगहों पर रोज़ा, मातम और नोहा चलता है।
गंगा-जमुनी तहज़ीब: हुसैनी ब्राह्मण से साधुओं तक
हिंदू परिवार भी पढ़ते हैं मर्सिए, करते हैं मातम। स्वामी सारंग जैसे संत 10 मोहर्रम को 56 छूरियां मारकर मातम करते हैं।
सुन्नी मुसलमान भी ताजिए बनाते हैं और कर्बला दफन करते हैं।
72 ताबूतों का जुलूस: शहादत की विरासत
मोहर्रम के बाद 72 ताबूतों का जुलूस निकाला जाता है। यह जुलूस शाह नजफ से बड़े इमामबाड़े तक जाता है। लोग अंगारों पर चलकर मातम करते हैं – एक भावनात्मक श्रद्धांजलि।
शाम-ए-गरीबां: अंधेरे में रोशनी की तलाश
10 मोहर्रम की शाम, इमामबाड़ा में होता है विशेष आयोजन। बत्तियां बुझा दी जाती हैं, और सन्नाटे में सिर्फ मातम और रोशनी की तलाश होती है।
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