
पश्चिम बंगाल के शिक्षा मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के सीनियर नेता सिद्दीकुल्ला चौधरी जब बड़े ठाठ से मंतेश्वर पहुंचे, तो उन्हें लगा होगा कि फूल-मालाएं और “जय हो” की गूंज होगी। लेकिन ज़मीनी हकीकत थोड़ी “हाई BP” वाली निकली — वहां तो काले झंडे, झाड़ू और ‘गो बैक’ के नारों से स्वागत हो रहा था!
गिल चमके, बुमराह छूटे! एजबेस्टन टेस्ट में गरमा-गरमी
साथ ही काफिले पर पत्थर भी बरसे — यानी जनता ने वोट तो दिया था, पर अब “बकाया हिसाब” वसूलने आई थी।
जनता का आरोप: चुनाव बाद दिखे ही नहीं!
स्थानीय कार्यकर्ताओं का आरोप था कि मंत्री साहब ने चुनाव जीतने के बाद इलाके को घूंट भर पानी भी नहीं पिलाया, विकास तो दूर की बात है।
एक नाराज़ कार्यकर्ता बोले,
“यहां की सड़कें, स्कूल और लोग – सब ठंडे पड़े थे!”
यानि मंत्री जी को मंतेश्वर याद आया… जब मंतेश्वर को मंत्री जी याद आ चुके थे!
“साजिश है भाई, सब बाहरी लोग थे!” – मंत्री जी की लाइन
मंत्री चौधरी जी ने कहा कि ये सब प्रदर्शन बाहरी लोगों ने किया, कुछ “किराए के नारेबाज़” बुलाए गए थे।
मतलब साफ है –जब जनता गुस्सा हो, तो उसे बाहरी बता दो और जब वोट मांगने जाना हो, तो “आप ही मेरा परिवार” कह दो!
राजनीति की चिर-परिचित ‘कुर्सीपार’ चाल।
“हम तो बात करना चाहते थे” – पंचायत प्रमुख की चुटकी
मंतेश्वर पंचायत समिति अध्यक्ष अहमद हुसैन शेख़ ने पलटवार करते हुए कहा, “हम तो बात करना चाहते थे, मंत्री जी ने खुद ही अपने हत्या का केस लिखवा दिया।”
अब ये बात तो मंत्री जी ही जानें कि विकास की बात को जानलेवा समझ बैठे या राजनीतिक आलोचना को आतंकवाद।
पुलिस आई, मंत्री जी बचाए गए, पर सवाल बाकी हैं
पुलिस ने फुर्ती दिखाई (कम से कम मंत्री के लिए), और उन्हें सुरक्षित बाहर निकाल लिया। लेकिन जनता के सवाल, गुस्सा और ‘झाड़ू ब्रिगेड’ की मांगें अब भी वहीं खड़ी हैं – चौधरी जी के वादों की तरह अधूरी और धूल खाती हुई।
सियासी सीन का निष्कर्ष: “जनता भूलती नहीं…”
मंतेश्वर की जनता ने ये दिखा दिया कि स्मृति लॉस सिर्फ नेताओं को होता है, वोटर अब सब कुछ नोट करता है – किसने काम किया, किसने सिर्फ भाषण दिया, और कौन कार में AC चला कर वादों को ठंडा कर गया।
नेता जी ध्यान दें: अब जनता फूल नहीं, फीडबैक देती है – और वो भी बिना फिल्टर के!