
हजरतगंज में एक महिला ने आत्महत्या कर ली। नाम था कविता निषाद। लेकिन ये नाम अब सिर्फ एक पुलिस डायरी में दर्ज नंबर नहीं, बल्कि उस तंत्र की लाश पर पड़ा फूल है जो हर बार VIP टाइटल के सामने घुटने टेक देता है। गोमती नदी में उसने छलांग लगाई, मगर सवाल अब भी सतह पर तैर रहा है—क्या न्याय इतना सस्ता हो गया है कि रुतबे से खरीदा जा सके?
अब पानी भी बारूद है! पाकिस्तान ने कोर्ट जीता, भारत ने इरादा
महेश की मौत: चोरी का आरोप या चरित्र की हत्या?
कविता के पति महेश निषाद ने 2 अप्रैल को आत्महत्या की। आखिरी वीडियो में नाम लिया— जज अनिल कुमार श्रीवास्तव और उनकी पत्नी का। महेश, जो सालों तक उनके यहां खाना बनाते थे, उन पर 6.5 लाख रुपये की चोरी का आरोप लगा। क्या संयोग है कि चोरी का इल्ज़ाम भी ठीक उसी पर लगा जो सामाजिक सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर था। यानि, रसूखदारी की सबसे पहली शिकार हुई ईमानदारी।
वीडियो सबूत? चलिए, उस पर “सम्माननीय स्टे” लगा देते हैं
महेश की मौत के बाद FIR दर्ज हुई, वीडियो सामने आया, गवाह भी तैयार। लेकिन फिर वो हुआ जो हमेशा होता है—पुलिस ने ऐसी धारा लगाई कि अपराध नहीं, मानो ट्रैफिक का चालान हो गया हो। आरोपी रिटायर्ड जज साहब सीधे कोर्ट गए, जहां उन्हें “आदरपूर्वक” स्टे मिल गया। भारत में VIP होना शायद यही होता है—जहां ‘सबूत’ भी झिझकते हैं, और ‘गिरफ्तारी’ खुद छिपने चली जाती है।
कविता का संघर्ष: हर दरवाज़ा खटखटाया, हर जगह सन्नाटा
पति की मौत के बाद कविता हर उस दरवाज़े पर गई जहां से इंसाफ निकलने की उम्मीद होती है—चौकी, थाना, डीसीपी ऑफिस। मगर जवाब हर जगह एक जैसा था: “जांच चल रही है।” जांच क्या है, ये कोई नहीं जानता। बस इतना समझ लीजिए कि वो एक ऐसा जादुई शब्द है जिससे पुलिस अपना पल्ला झाड़ लेती है और सिस्टम गहरी नींद में चला जाता है।
पुलिस का दिमाग तेज़, मगर सिर्फ बहाने बनाने में
अब जब कविता ने भी जान दे दी, तो पुलिस की सोच अचानक ‘पारिवारिक विवाद’ की ओर घूम गई। वो कह रही है कि ये आत्महत्या किसी घरेलू संपत्ति के झगड़े की वजह से हुई है। यानी, अब सिस्टम की नई नीति है—जहां VIP फंसे, वहां “फैमिली इश्यू” बोलकर मामला रफा-दफा कर दो। हत्या? नहीं नहीं, बस थोड़ा सा ‘इमोशनल डिसबैलेंस’ था।
VIP = Very Invisible Process
जिस देश में आम आदमी को मामूली केस में महीनों जेल में रखा जाता है, उसी देश में पूर्व जज पर नाम, गवाह और वीडियो सब मौजूद होने के बावजूद गिरफ्तारी नहीं होती। क्योंकि VIP की छतरी के नीचे कानून भी धूप में सिकुड़ जाता है। जज साहब और उनकी पत्नी आज भी फ्री हैं, क्योंकि न्याय अब फैसला नहीं सुनाता, पहले पूछता है—“सर, आप क्या चाहेंगे?”
कविता नहीं मरी, उसे मारा गया—संविधान की चुप्पी से
कविता निषाद की आत्महत्या महज़ एक घटना नहीं, बल्कि एक घोषणापत्र है—कि अगर आपके पास पावर नहीं है, तो सिस्टम आपके लिए केवल टोन डफर की तरह बजता है। कविता ने न्याय के लिए हर प्रयास किया, लेकिन आखिर में सिस्टम ने कहा—”जाओ, गोमती से बात करो, हम तो केस में स्टे ले आए हैं!”
कानून की आंखों पर पट्टी नहीं, पॉलिटिकल पट्टा है
कविता और महेश की कहानी एक आइना है, जिसमें हमारी न्याय प्रणाली का असली चेहरा साफ दिखाई देता है। एक ओर रसूख, स्टे ऑर्डर, और पुलिस की चुप्पी, दूसरी ओर गरीबों की चीखें, सबूतों की अनदेखी और आत्महत्याओं की भरमार। इस देश में न्याय अब गूगल मैप जैसा हो गया है—रास्ता तो दिखता है, लेकिन मंज़िल कहीं नहीं पहुंचती।
मोदी बने ‘धर्म चक्रवर्ती’ – भारत की आत्मा पर लगाया आध्यात्मिक तिलक