लखनऊ के मदेयगंज खदरा क्षेत्र में मोहर्रम की 10वीं तारीख पर परंपरा के अनुसार ताबूत का जुलूस निकाला गया और मजलिस आयोजित की गई। इसमें बड़ी संख्या में लोगों ने हिस्सा लिया। कर्बला की याद में गार वाली कर्बला पर ‘आग का मातम’ कर गहरा शोक व्यक्त किया गया। सबीलों की मिठास में बसी इंसानियत जुलूस के दौरान हर मोड़ पर शरबत और पानी की सबीलें लगाई गई थीं। जुलूस में शामिल हर व्यक्ति को ठंडा शरबत बांटा गया। यह केवल एक रस्म नहीं, बल्कि एकता और सेवा का जीवंत…
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10,000 लोगों का खाना, रातभर चलती रसोई: लखनऊ का शाही किचन
जैसे ही मोहर्रम का चांद दिखता है, लखनऊ का छोटा इमामबाड़ा एक बार फिर अपनी मोहब्बत भरी परंपरा के लिए चर्चा में आ जाता है। यहां 1 से 9 मोहर्रम तक सजता है ‘शाही किचन’, जहां से रोज़ाना 10,000 से ज़्यादा ज़रूरतमंदों के लिए खाना बनाकर बांटा जाता है। ग़ज़ा संघर्ष विराम पर क़तर में हमास-इसराइल वार्ता, संशोधन पर टकराव 65 लाख में मिला इस साल का ठेका इस रसोई का संचालन हुसैनाबाद ट्रस्ट की निगरानी में होता है और इस साल इसका ठेका 65 लाख रुपये में दिया गया…
Read Moreप्यास पे करबला रोया: अली असग़र अ.स. पर एक नौहा जो रूह तक हिला दे
कर्बला की दास्तान में अगर कोई लम्हा सबसे ज्यादा रूह को झकझोरता है, तो वो है अली असग़र अ.स. की शहादत। महज़ छह महीने की उम्र, दूध के लिए तड़पता बच्चा, और पिता इमाम हुसैन अ.स. की गोद में तीर की ज़ुबान से मिला जवाब — यह नज़ारा न केवल इतिहास बल्कि इंसानियत के सीने पर एक ऐसा ज़ख्म है, जो कभी नहीं भरता। ये नौहा सिर्फ़ एक मातमी नज़्म नहीं, बल्कि उस मासूम चीख़ का साज है जिसे न कोई ज़ुबां मिली, न ज़मीर ने जवाब दिया। ये तरन्नुम…
Read Moreलखनऊ शाही मेहंदी जुलूस: मोहर्रम पर तहज़ीब, मातम व एकता का प्रतीक
जब मोहर्रम दस्तक देता है, तो लखनऊ की रंगीन गलियाँ एकदम बदल जाती हैं। चाहे वह मातम हो, मेहंदी की जलीलियत हो या साबित तहज़ीब — यह शहर गंगा-जमुनी एकता का जुमला बन जाता है। जब ‘जय भीम’ सिर्फ़ नारा नहीं, इंकलाब बन गया अज़ादारी की तहज़ीबी जड़ें 18वीं सदी में नवाब असफ़‑उद‑दौला ने लखनऊ को शिया संस्कृति का केंद्र बनाया। “मजलिस”, “नौहे”, “अलम”, “ताज़िया” — यह परंपराएँ यहाँ की रग‑रग में घुल चुकी हैं।अब अज़ादारी 29 जिल‑हिज्जा के बाद रबी‑उल‑अव्वल तक फहराती रहती है, एक दायरे में दोनों तरफ़…
Read Moreहुसैन जिए ज़ुल्म के ख़िलाफ़… और अमन के लिए शहीद हुए
इस्लामिक कैलेंडर की शुरुआत मोहर्रम से होती है, लेकिन ये कोई जश्न नहीं – एक ऐसा महीना है जो पूरी दुनिया को इंसाफ़, कुर्बानी और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होने का पाठ पढ़ाता है। आज से करीब 1400 साल पहले कर्बला की तपती रेत पर वो जंग लड़ी गई थी जिसमें सिर्फ़ हथियार नहीं, आदर्श, उसूल और इंसानियत टकरा रहे थे। पैग़ंबर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन, जिनका गुनाह सिर्फ इतना था कि उन्होंने अन्याय के सामने सिर झुकाने से इनकार कर दिया – उन्हें और उनके 71 साथियों…
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