
भारतीय संस्कृति में विवाह केवल दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो आत्माओं और दो परिवारों का संगम होता है। यह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से पवित्र बंधन है, जिसमें अग्नि को साक्षी मानकर वर और वधू सात फेरे लेते हैं। इन सात फेरों के साथ जुड़े होते हैं सात वचन, जो वैवाहिक जीवन के मूल स्तंभ होते हैं।
हर वचन केवल एक वादा नहीं, बल्कि जीवनभर के लिए एक दायित्व, एक प्रतिबद्धता होती है जो दंपति के रिश्ते को प्रेम, सम्मान और निष्ठा की डोर में बाँधती है।
पहला वचन: धार्मिक एकता और साथ निभाने का वादा
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!।
भावार्थ: तीर्थ, व्रत और यज्ञ जैसे धार्मिक कार्यों में पत्नी की भागीदारी सुनिश्चित हो।
महत्व: धार्मिक जीवन में समान सहभागिता रिश्ते की आध्यात्मिक बुनियाद को मजबूत करती है।
दूसरा वचन: परिवार के प्रति समान सम्मान
पुज्यो यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम!।
भावार्थ: पति पत्नी दोनों अपने-अपने माता-पिता का समान रूप से सम्मान करें।
महत्व: यह वचन रिश्तों में संतुलन और पारिवारिक एकता बनाए रखने में सहायक है।
तीसरा वचन: जीवन के हर चरण में साथ
जीवनम अवस्थात्रये पालनां कुर्यात
वामांगंयामितदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तूतीयं!।
भावार्थ: जीवन की हर अवस्था में एक-दूसरे का साथ निभाने की प्रतिज्ञा।
महत्व: यह वचन भावी कठिनाइयों और वृद्धावस्था में भी साथ रहने का वादा है।
चौथा वचन: पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ:।
भावार्थ: पति परिवार की आर्थिक और सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाए।
महत्व: यह वचन दांपत्य जीवन की स्थिरता और उत्तरदायित्व की चेतना जगाता है।
पाँचवां वचन: विचार-विमर्श और समान निर्णय
स्वसद्यकार्ये व्यहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या!।
भावार्थ: घरेलू फैसलों में पत्नी की राय का सम्मान हो।
महत्व: यह वचन पारदर्शिता, संवाद और आपसी सम्मान को दर्शाता है।
छठा वचन: अपमान और बुरे व्यसनों से दूर रहना
न मेपमानमं सविधे सखीना द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्वेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!।
भावार्थ: सार्वजनिक रूप से पत्नी का अपमान न करना और बुरे व्यसनों से बचना।
महत्व: सम्मान और संयम किसी भी रिश्ते की नींव हैं।
सातवां वचन: निष्ठा और विश्वास
परस्त्रियं मातूसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कूर्या
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तमत्र कन्या!।
भावार्थ: परस्त्रियों को माता समान समझना और एकनिष्ठ प्रेम रखना।
महत्व: यह वचन रिश्ते की पवित्रता और विश्वास की रक्षा का संकल्प है।
सात वचन: सिर्फ परंपरा नहीं, जीवन जीने का दर्शन
इन सात वचनों में केवल धार्मिक नियम नहीं, बल्कि वैवाहिक जीवन की समझ, संतुलन और सहजीवन का दर्शन छुपा है। अगर दंपति इन वचनों के गहरे अर्थ को समझकर अपने रिश्ते में उतारें, तो जीवनसाथी का संबंध सिर्फ सामाजिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और आत्मिक बन जाता है।