धमकी, धौंस और धमक की राजनीति: राहुल गांधी बनाम चुनाव आयोग

अनुराग शुक्ला

चुनाव आयोग गलतफहमी में न रहे! वोट चोरी करने के आपके हथकंडों के 100% पुख्ता सबूत हैं हमारे पास। हम उन्हें सामने भी लाएंगे और आप इसके अंजाम से बच नहीं पाएंगे।

ये शब्द हैं भारत के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के। ये शब्द कर्नाटक में चुनाव को लेकर उनके सोशल मीडिया हैंडल पर लिखे गए हैं। वो भी तब जब वो खुद एक संवैधानिक पद पर हैं। उन्होंने उस चुनाव आयोग को चुनौती दी है जिसने दुनिया में अब तक का सबसे बड़ा चुनाव एक साल पहले कराया है।

ये चुनाव कितना बड़ा था इसका अंदाजा आकंड़ों से स्पष्ट है। 44 दिनों तक चला ये चुनाव 1951-52 के भारतीय आम चुनाव के बाद दूसरा सबसे लंबा चुनाव है। 2024 के लोकसभा चुनाव में देश की 140 करोड़ की आबादी में से करीब 97 करोड़ लोग वोट देने के पात्र थे, जो कुल आबादी के 70 प्रतिशत के बराबर है। इसी चुनाव में 64 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं ने भाग लिया और उनमें से 31 करोड़ से ज्यादा महिलाएं थीं। अब तक की ये सबसे अधिक महिला भागीदारी वाला चुनाव है जिसे चुनाव आयोग ने संपन्न कराया। इस निर्वाचन में 1.8 करोड़ ऐसे मतदाता भी शामिल थे जिन्होंने पहली बार वोट डाला। मतदाताओं की कुल संख्या दुनिया की आबादी के 10% से भी ज़्यादा है।

इसी चुनाव आयोग ने ये सुनिश्चित किया कि भारत के सबसे दूर-दराज़ के कोनों और सबसे ऊँची चोटियों पर रहने वाले लोग भी अपना वोट डालें। भारत में हिमालय पर्वतों में 15 हजार फीट से ज्यादा दुनिया का सबसे ऊँचा मतदान केंद्र भी बनाया गया। ऐसे इलाकों में वोटिंग मशीनें घोड़ों और की पीठ पर लादकर ले जाई गयीं जहां पहुंचना ही मुश्किल था। कुछ जगहों पर तो मतदान केंद्रों तक सिर्फ़ नाव से ही पहुंचाया गया।
इसी चुनाव में 2,600 से ज़्यादा राजनीतिक दल पंजीकृत रहे। दुनिया के सबसे बड़े चुनाव में भारत निर्वाचन आयोग यानी चुनाव आयोग ने दस लाख से ज़्यादा मतदान केंद्र बनाए और प्रक्रिया की निगरानी के लिए 1.5 करोड़ लोगों को तैनात किया।

दरअसल कांग्रेस की राजनीति धमकी, धौंस और धमक वाली ही रही है। राहुल गांधी जिस विरासत के पोषक हैं उस सियासत में ये तीनों कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यानी धौंस, धमक और धमकी।

1970 के दशक में जब कांग्रेस सत्ता में थी और श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं तो एक शब्द बहुत प्रचलन में था कमिटेड ज्यूडिशरी यानी प्रतिबद्ध न्यायपालिका। 1973 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इसी सिद्धांत के हिसाब से केशवानंद भारती मामले में जस्टिस जे.एम. शेलट, जस्टिस के.एस. हेगड़े और जस्टिस ए.एन. ग्रोवर को दरकिनार कर जस्टिस ए एन रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्ति में भूमिका निभाई थी। अपने इस असंवैधानिक निर्णय को सही साबित करने के लिए इंदिरा गांधी के एक मंत्री ने कहा था कि सरकार को प्रधान न्यायाधीश बनाने से पहले व्यक्ति की फिलॉसफी और आउटलुक को ध्यान में रखना पड़ता है। यहां पर इन मंत्री महोदय का फिलॉसफी और आउटलुक का मतलब निश्चित रूप से गांधी परिवार के प्रति निष्ठा से था। यानी धमक और धौंस वाली राजनीति।

यही कहानी 1975 में दोहराई गई जब इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को इलाहबाद हाई कोर्ट द्वारा निरस्त करने के बाद जस्टिस एचआर खन्ना को दरकिनार कर गांधी परिवार के प्रति निष्ठा रखने वाले जस्टिस बेग को भारत का प्रधान न्यायाधीश बनाया गया था। जस्टिस खन्ना ने एडीएम जबलपुर मामले में असहमति जताते हुए कहा था कि आपातकाल में भी नागरिकों के मौलिक अधिकार पूरी तरह निलंबित नहीं हो सकते । यानी वही धौंस और धमकी की राजनीति।

इस घटना के करीब 40 साल बाद भी कांग्रेस का रवैया नहीं बदला। साल 2013 की घटना कोई नहीं भूला है। उस दौरान राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे। उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपनी ही सरकार द्वारा कैबिनेट से पारित एक अध्यादेश की कॉपी को फाड़ दिया था। यह बिल तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह की कैबिनेट ने स्वीकृत किया था, लेकिन राहुल गांधी ने ‘कंप्लीट नॉनसेंस’ बोला था। राहुल गांधी की इस हरकत से मनमोहन सिंह खफा हो गए थे। इस्तीफा देना चाहते थे। मोंटेक सिंह अहलूवालिया की किताब ‘बेकस्टेज: द स्टोरी बिहाइंड इंडियाज हाई ग्रोथ ईयर्स’ में इसका खुलासा है। यानी दशकों बीतने के बाद भी राजनीतिक संस्कार, विचार वही- धौंस और धमकी की राजनीति।

कांग्रेस सत्ता में तो धौंस औऱ विपक्ष में हो धमकी। 2014 के बाद से कांग्रेस उसके नेताओं ने अपनी हर हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ा है। उसके हैक होने की कहानियां सुनाई हैं और जब चुनाव आयोग ने चुनौती दी तो ईवीएम को टेस्ट करने पहुंचे ही नहीं। अदालतें हो, देश की सेना का पराक्रम हो या फिर सेना प्रमुख का सम्मान सबको कांग्रेस ब्रांड की धौंस, धमकी और धमक वाली राजनीति को झेलना पड़ा है।

2019 के लोकसभा चुनाव के पहले राफेल मामले में कोर्ट के खिलाफ कांग्रेस ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी। राहुल गांधी ने कोर्ट के फैसले को सरकार के प्रभाव वाला बताया। कोर्ट ने इसे अवमानना माना। वही धौंस और धमकी वाली राजनीति। बाद में इस मुद्दे पर राहुल गांधी को सार्वजनिक रुप से माफी मांगी।

अयोध्या के राममंदिर के मुकदमें पर पहले कांग्रेस ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अस्तित्व को नहीं माना। फैसला आते समय इसे टलवाने की कोशिश की और फैसले को हिंदू भावनाओं के दबाव में लिया गया फैसला बताया। ये कोर्ट पर सवाल उठाने जैसा है। वही धमक और धौंस वाली राजनीति

सीएए और एनआरसी से जुड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के कानून पर रोक लगाने से मना कर दिया। बस क्या था कांग्रेस के नेताोँ ने कोर्ट को निष्क्रिय तक बता दिया। सोनिया गाधी समेत कई नेताओ ने सार्वजनिक मंच पर न्याय की विफलता बता दिया। वही धमक और धौंस की राजनीति।

अभी हाल में ही राहुल गांधी अवमानना के एक केस में लखनऊ की अदालत में हाजिर हुए थे वो जज की टेबल पर ऐसे खड़े थे जैसे लग रहा था कि फोटो सेशन करा रहे हैं। इसे फोटो ऑपरच्यूनिटी बना लिया। कोर्ट में वो तो शालीन भी नहीं दिख रहे थे। ऐस लग रहा था कि उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ रहा है कि अदालत में हैं और केस उनके ही खिलाफ है। धमक और धौंस की राजनीति में ये शायद आम होता होगा।
बात ये नहीं कि आप दोषी हैं या नहीं, ये तो अदालत का काम है पर शालीनता कोर्ट के प्रति आपके सम्मान का प्रतीक है। कोर्ट की मर्यादा के प्रति आपके भाव का प्रतीक है। पर ये भाव गायब था। भाव वही था- धमक वाली राजनीति, धौंस वाली अंग भाषा।

बहरहाल कर्नाटक राहुल गांधी की धमकी का चुनाव आयोग ने बिंदुवार जवाब दिया है। कहा जब कानून तौर पर शिकायत करने का मौका था तो उनके दल या किसी दल ने शिकायत नहीं की। पर कांग्रेस कहां बदलने वाली है। राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर हमला जारी रखते हुए कर्नाटक के चुनाव को लेकर कहा, “मैं निर्वाचन आयोग को एक संदेश देना चाहता हूं — अगर आपको लगता है कि आप इससे बच निकलेंगे, अगर आपके अधिकारी सोचते हैं कि वे इससे बच जाएंगे, तो आप गलतफहमी में हैं।
अब फिर से क्या कहना कि ये कांग्रेस की किस अदा वाली राजनीति है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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