लखनऊ शाही मेहंदी जुलूस: मोहर्रम पर तहज़ीब, मातम व एकता का प्रतीक

महेंद्र सिंह
महेंद्र सिंह

जब मोहर्रम दस्तक देता है, तो लखनऊ की रंगीन गलियाँ एकदम बदल जाती हैं। चाहे वह मातम हो, मेहंदी की जलीलियत हो या साबित तहज़ीब — यह शहर गंगा-जमुनी एकता का जुमला बन जाता है।

जब ‘जय भीम’ सिर्फ़ नारा नहीं, इंकलाब बन गया

अज़ादारी की तहज़ीबी जड़ें

18वीं सदी में नवाब असफ़‑उद‑दौला ने लखनऊ को शिया संस्कृति का केंद्र बनाया। “मजलिस”, “नौहे”, “अलम”, “ताज़िया” — यह परंपराएँ यहाँ की रग‑रग में घुल चुकी हैं।
अब अज़ादारी 29 जिल‑हिज्जा के बाद रबी‑उल‑अव्वल तक फहराती रहती है, एक दायरे में दोनों तरफ़ मातम का सिलसिला

शाही मेहंदी: अधूरी शादी की महक

7 वें मोहर्रम की सुबह, जब शाही मेहंदी निकलती है, तो यह सिर्फ एक जुलूस नहीं — हज़रत क़ासिम (अ.स.) की अधूरी शादी की याद होती है।
नवाब मोहम्मद अली शाह ने इसे 19वीं सदी में शुरू किया, और वाजिद अली शाह ने उसमें शायरी‑संगीत का इत्र घोला। आज यह न सिर्फ धार्मिक रस्म, बल्कि सांस्कृतिक दस्तावेज बन गया है।

जुलूस का रूह, रास्ता और रंग

बड़े इमामबाड़े से शुरू होकर छोटे इमामबाड़े तक चलता यह जुलूस, हाथी-ऊँट की सजावट, अलम‑ताज़िया, नौहाख़्वानी और सबील — हर मोड़ पर ये दृश्य गंगा-जमुनी रूह को दर्शाते हैं।

लिखें देखा जाए, तो यह संस्कृति की इबादत है, जज़्बातों की ज़ोबा‌न और विरासत की गूँज।

सुरक्षा के तार: ड्रोन से निगरानी तक

2025 के इस जुलूस के लिए प्रशासन ने ड्रोन, CCTV, और 15 महत्वपूर्ण मार्गों पर सुरक्षा स्थलों की व्यवस्था की।
डीसीपी मध्य क्षेत्र ने कहा, “लखनऊ की विरासत है — इसकी सुरक्षा हम सबकी ज़िम्मेदारी है।”

तेहज़ीब और एकता की मिसाल

यह जुलूस सिर्फ़ शिया‑अनुष्ठान नहीं, पूरे समुदायों का साझा इज़हार है। हिंदू, सुन्नी, सिख लोग सबील लगाते हैं, ब्राह्मण पढ़ते हैं नौहाख्वान — यह है इंसानियत का जश्न

चुनौतियाँ और अज़ादी की मजबूती

1908, 1968, 1977 — कई ज़माने हुए जब लखनऊ ने टूटन सी देखी, लेकिन शाही मेहंदी की रौनक कभी रुख़सत नहीं हुई। कोविडकाल में ऑनलाइन मजलिसें हुईं, लेकिन जज़्बा बरकरार रहा। 1998 में सड़कों पर लौटने के बाद यह रिवायत गरिमामयी और आत्मविश्वास से भरपूर रूप में ताज़ा हुई है।

जब तहज़ीब बोले, जुलूस खिल उठता है

7 वां मोहर्रम और शाही मेहंदी जुलूस है लखनऊ की रूहानी दस्तक — जिसमें दर्द, विरासत और तहज़ीब तीनों की आवाज़ गूंजती है।
यह जुलूस हमें याद दिलाता है —

मजहब जो भी हो, जब मक़सद इंसाफ़ और इंसानियत हो, तो हर कोई हुसैनी बन सकता है।

एक तरफ IIT, NEET और UPSC के बच्चे दूसरी तरफ करोड़पति रीलबाज

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