ग़ज़ा में बच्चों की मौत और संयुक्त राष्ट्र की चुप्पी: मानवाधिकार सिर्फ टाइमपास?

आशीष शर्मा (ऋषि भारद्वाज)
आशीष शर्मा (ऋषि भारद्वाज)

बच्चों की चीखें, लेकिन संयुक्त राष्ट्र अब भी ‘मीटिंग मोड’ में! ग़ज़ा के अल-नुसेरत रिफ्यूजी कैंप में जब बच्चे पानी भरने गए और उन पर बम गिरा — 6 बच्चों समेत 10 लोग मारे गए।
दुनिया की आंखें नम थीं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के प्रेस ऑफिस में शायद वीकेंड की छुट्टी थी

पानी भरने गए, ज़िंदगी गंवा बैठे: ग़ज़ा में 6 बच्चों की मौत

मानवाधिकार आयोग की मानवता आउट ऑफ कवरेज

UNHRC यानी मानवाधिकार का वो मठ, जहाँ अधिकारों की रक्षा सिर्फ काग़ज़ों और घोषणाओं में होती है।
ग़ज़ा में बम स्कूलों पर गिरते हैं, टैंकर की लाइन में खड़े बच्चों की हड्डियाँ टूटती हैं — और इस संस्थान की भावनाएं वाई-फाई सिग्नल के साथ गायब हो जाती हैं।

क्या UNHRC सिर्फ उन्हीं देशों के लिए है जहाँ पानी ठंडा और एयरकंडीशनर ON रहता है?

निंदा प्रस्तावों का मौसम, लेकिन कार्रवाई का सूखा

जब भी ग़ज़ा में कोई बड़ा हमला होता है, UN की मीटिंग बुलती है, और एक नया “गंभीर चिंता” वाला प्रेस नोट तैयार होता है
पर कार्रवाई?
“संयुक्त राष्ट्र गहरी चिंता व्यक्त करता है…” अब सवाल यह है कि इतनी गहरी चिंता कब उबाल मारेगी?
या फिर ये चिंता Instant Noodles की तरह 2 मिनट की संवेदना भर है?

पानी पर हमला = युद्ध अपराध, पर शायद UN के कानों में पानी गया है

बच्चों को बम से उड़ाया जाना युद्ध अपराध है। लेकिन जब पीड़ित ग़ज़ा के होते हैं, तो नियम, सिद्धांत और अंतरराष्ट्रीय कानून अचानक नींद में चले जाते हैं। लगता है संयुक्त राष्ट्र के लिए हर मौत का मोल एक पासपोर्ट पर लिखा होता है।

जब संवेदनशीलता “रूटीन अपडेट” बन जाए

रेड क्रॉस तक कह चुका है कि पिछले 6 हफ्तों में रफ़ाह फील्ड अस्पताल में जितने घायल आए हैं, उतने एक साल में नहीं आए थे। पर UN तो मानो “ब्रेकिंग न्यूज” नहीं देखता, वो सिर्फ “ब्रेक” लेता है। कभी-कभी तो लगता है, संयुक्त राष्ट्र का रुख वैसा ही है जैसा स्कूल में वो बच्चा जिसका ग्रुप प्रोजेक्ट में नाम होता है पर काम नहीं।

क्या संयुक्त राष्ट्र अब सिर्फ एक ब्रांड नेम है?

संयुक्त राष्ट्र — कभी उम्मीद का प्रतीक था। आज यह एक ऐसी संस्था बन गई है, जो सिर्फ भाषण देती है, ट्वीट करती है, और ‘गंभीर चिंता’ में स्थायी सदस्यता रखती है। कहने को दुनिया की सबसे बड़ी संस्था, पर बचपन की सबसे बड़ी त्रासदी पर सबसे छोटी प्रतिक्रिया।

घड़ी है, अलार्म नहीं

संयुक्त राष्ट्र अब उस घड़ी की तरह है जो दीवार पर टंगी है, समय तो दिखाती है, लेकिन अलार्म नहीं बजाती।
ग़ज़ा के बच्चों की चीखें इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाएंगी, पर UN की फाइलों में वो शायद “Pending Action” टैब में ही रह जाएंगी।

अब सवाल ये नहीं कि क्या संयुक्त राष्ट्र सुन रहा है,

सवाल ये है — क्या उसे सुनने की फुर्सत है?

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