
देशभर में दिवाली का त्योहार चल रहा है — रंग‑झलकी, आतिशबाजी, दियों की पंक्तियाँ। इसी बीच अखिलेश यादव ने एक ऐसा बयान दिया है, जो दिवाली की “रोशनी” में थोड़ी सियासी “छाया” लेकर आया है। उन्होंने कहा कि वह सरकारी योजनाओं पर सुझाव नहीं देना चाहते — लेकिन “भगवान राम के नाम पर” एक सुझाव देना चाहेंगे। उन्होंने कहा:
“पूरी दुनिया में क्रिसमस के दौरान सारे शहर रोशन हो जाते हैं। हमें उनसे सीखना चाहिए। हमें दीयों और मोमबत्तियों पर पैसा क्यों खर्च करना है?”
उनके इस सुझाव ने सोशल‑मीडिया और राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी।
क्या सच में सुझाव है या सियासी प्वाइंट?
बयान के इस हिस्से ने तुरंत सरकार‑प्रशासन पर सवाल खड़े कर दिए। अखिलेश ने कहा कि मोमबत्ती‑दीया का खर्च इतना सोचना क्यों? सीधे‑सादे सवाल ने यह संकेत दिया कि त्योहार की भव्यता के पीछे कहीं आम जनता की चिंताएँ छुपी हैं।
वे आगे गए और सरकार पर कटाक्ष किया:
“देर आए‑दुरुस्त आए, हम इस सरकार से क्या उम्मीद कर सकते हैं।”
यानी — दिवाली जोड़ने से पहले वो पूछते हैं, “क्यों?”

सुरक्षा का मुद्दा: महिलाएं, दलित‑आदिवासी, हिरासत
उनका हमला सिर्फ दीया‑मोमबत्ती तक नहीं रुका। उन्होंने कहा कि यूपी में महिलाएं सबसे असुरक्षित हैं, दलित‑आदिवासी भी अन्याय झेल रहे हैं और हिरासत में मौतें बढ़ रही हैं। यह सब उन्होंने वर्तमान सरकार के खिलाफ एक सियासी वॉरंटरी की तरह पेश किया।
यह बयान इस मायने में महत्वपूर्ण है कि दिवाली का माहौल “उत्सव” का तो है ही, साथ‑ही साथ जिम्मेदारियों का भी।
जब मोमबत्ती बन जाए राजनीतिक मेटाफर
कल्पना कीजिए:
— एक मोमबत्ती बिक्री स्टॉल पर लिखा हो: “मोमबत्ती खरीदें, सरकार‑प्रोफाइटिंग मॉडल तक पहुंचें।”
— दूसरा स्टॉल: “दिया खरीदें — हमसे सीखें संसार को रोशन करने की कला।”
अखिलेश का बयान कुछ ऐसा ही था — त्योहार की रोशनी पर सवाल, सरकार की रोशनी‑प्रस्तुति पर टिप्पणी।
और मीडिया ने तुरंत इसे पकड़ लिया: “दीया बनाम मोमबत्ती का मेटाफर”।
दीया‑मोमबत्ती से बढ़कर सवाल हैं
दिवाली सिर्फ आलोकित घऱ‑आँगन नहीं, बल्कि समाज‑मानविकी का भी पैमाना है। अखिलेश यादव ने यह संदेश दिया कि “रोशनी तब पूरी होती है जब घर में, मोमबत्ती के साथ‑साथ भरोसा, सुरक्षा और समानता हो।”
तो इस दिवाली पर वो पढ़ना चाह रहे हैं — सिर्फ पटाखों की धमक नहीं, लोगों की आवाज़ भी सुनिए।
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