
गुजरात के वडोदरा में आज वो हुआ जिसकी चेतावनी बार-बार दी गई थी, मगर सुना किसी ने नहीं। 43 साल पुराना गंभीरा पुल, जो वडोदरा को आणंद से जोड़ता था, भरभराकर गिर गया। हादसे के वक्त कई गाड़ियां पुल से गुजर रही थीं, जिनमें से कुछ सीधे महिसागर नदी में समा गईं। अब तक 9 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है और रेस्क्यू ऑपरेशन जारी है।
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कब बना था ये ‘विश्वास’ का पुल?
यह पुल पदरा तालुका के मुजपुर गांव के पास, 1982-83 में बनाया गया था। उस समय इसे एक “टिकाऊ” निर्माण कहा गया था, लेकिन 43 साल बाद वही टिकाऊपन अब ढह गया। विशेषज्ञों ने पहले ही मरम्मत की ज़रूरत बताई थी, लेकिन शायद “मरम्मत” की बजाय “मेमो” लिखा गया होगा।
कितने गांवों की सांसें टूटीं?
इस हादसे ने सिर्फ पुल नहीं, बल्कि करीब 100 गांवों का कनेक्शन भी तोड़ दिया। यह ब्रिज स्टेट हाइवे का हिस्सा था और आसपास के गांवों जैसे बोरसद के लिए ये एक लाइफलाइन था। अब न गांववालों का आवागमन हो रहा है, न व्यापारी की सप्लाई।
प्रशासन के पास जवाब नहीं, सिर्फ जांच है!
सरकारी बयान वही पुराना है—”जांच की जाएगी”। पुल गिरने से पहले कई चेतावनियां दी गईं थीं कि इसकी हालत खस्ता है, लेकिन उन्हें शायद किसी ड्रॉअर में डाल दिया गया। अनुमान और असावधानी की इस घटना ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि भारत में ढांचागत विकास से ज्यादा ज़रूरत है जवाबदेही की मरम्मत की।
असर सिर्फ रास्ते पर नहीं, रोज़गार और रिश्तों पर भी
अब जब ये पुल टूट गया है, इसका असर सिर्फ ट्रैफिक पर नहीं, स्थानीय इकोनॉमी और नौकरी पर भी पड़ेगा। कमर्शियल वाहन, किसान, छोटे व्यापारी – सभी इस पुल पर निर्भर थे। अब ये सभी एक बार फिर जुगाड़ू भारत के भरोसे छोड़ दिए गए हैं।
नतीजा: पुल गिरा है, मगर भरोसे की नींव भी हिली है
इस हादसे ने एक बात साफ कर दी है: ढांचों की उम्र से ज्यादा जरूरी है इंसानी जिम्मेदारी। अगर समय पर चेतावनियों को सुना जाता, तो आज 9 परिवार मातम नहीं मना रहे होते।