
ग़ज़ा युद्ध के चलते थकी दुनिया के लिए राहत की एक हल्की किरण दिखाई दी है। इसराइल ने हमास के ‘अस्वीकार्य संशोधनों’ के बावजूद क़तर में प्रस्तावित वार्ता में भाग लेने का निर्णय लिया है।
प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के दफ्तर ने पुष्टि की है कि वार्ता में इसराइली प्रतिनिधिमंडल शामिल होगा, भले ही हमास की कुछ मांगें उनके लिए “स्वीकार्य नहीं” हैं।
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हमास: संशोधन नहीं तो संघर्ष फिर से?
हमास ने 60 दिन के संघर्ष विराम पर ‘सकारात्मक रुख’ दिखाया है, लेकिन उसके अनुसार वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए कुछ गारंटी जरूरी हैं।
सबसे अहम मांग यह है कि अगर स्थायी युद्धविराम पर सहमति नहीं बनती है, तो फिर से संघर्ष शुरू न हो। यानी “बातचीत टूटे तो बम न फूटे” की गारंटी चाहिए!
कौन कर रहा है मध्यस्थता?
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अमेरिका
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मिस्र
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क़तर
ये तीनों देश मध्यस्थता की भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन समझौते की शर्तों में राजनीतिक फिसलन ज़्यादा है। क़तर का कमरा मीटिंग से ज़्यादा मिनी-यूएन जैसा दिखने लगा है।
बंधकों की रिहाई: समाधान की कुंजी
संघर्ष विराम प्रस्ताव का सबसे संवेदनशील पहलू बंधकों की रिहाई है। इसराइल चाहता है कि बंधक पहले रिहा हों, फिर शांति पर बात हो।
जबकि हमास का तर्क है – “पहले स्थायी युद्धविराम की गारंटी, फिर बंधक मुक्त होंगे”। यानी दोनों पक्ष एक-दूसरे से वही मांग कर रहे हैं जो खुद देने को तैयार नहीं!
राजनीतिक दबाव या कूटनीतिक थकान?
विश्लेषकों का मानना है कि दोनों पक्षों पर अंतरराष्ट्रीय दबाव के साथ-साथ सामरिक थकान भी हावी है। इसराइल को अमेरिका से समर्थन चाहिए, और हमास को अरब देशों से भरोसा। लेकिन जब भरोसा भी संशोधन के बंधन में हो, तो शांति भी सिर झुकाकर ही आती है।
शांति अब भी दस्तक दे रही है… लेकिन दरवाज़ा कौन खोले?
ग़ज़ा की त्रासदी अब केवल फ़लस्तीनी-इसराइली नहीं, बल्कि मानवता का मामला बन गई है। हमास और इसराइल के बीच संशोधन और शर्तों के भंवर में उलझी ये वार्ता, दुनिया की उम्मीदों की नज़र में है। महज़ “संघर्ष विराम वार्ता” नहीं — यह भविष्य का रास्ता तय कर सकती है।