हुसैन जिए ज़ुल्म के ख़िलाफ़… और अमन के लिए शहीद हुए

सैफी हुसैन
सैफी हुसैन

इस्लामिक कैलेंडर की शुरुआत मोहर्रम से होती है, लेकिन ये कोई जश्न नहीं – एक ऐसा महीना है जो पूरी दुनिया को इंसाफ़, कुर्बानी और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होने का पाठ पढ़ाता है। आज से करीब 1400 साल पहले कर्बला की तपती रेत पर वो जंग लड़ी गई थी जिसमें सिर्फ़ हथियार नहीं, आदर्श, उसूल और इंसानियत टकरा रहे थे।

पैग़ंबर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन, जिनका गुनाह सिर्फ इतना था कि उन्होंने अन्याय के सामने सिर झुकाने से इनकार कर दिया – उन्हें और उनके 71 साथियों को प्यासा रखकर बर्बरता से क़त्ल कर दिया गया। यही है मोहर्रम की असली तहरीर – मातम, मोहब्बत और मज़लूमों के लिए आवाज़ उठाने का महीना।

हम समझेंगे कर्बला की कहानी, यज़ीद की ज़िद, हुसैन की रज़ा, और ये क्यों कहा जाता है कि “हर दौर का हुसैन ज़िंदा रहता है, और हर यज़ीद मिट जाता है।”

पैगंबर के बाद इस्लाम में खिलाफ़त की व्यवस्था आई, लेकिन यज़ीद इब्ने माविया ने तलवार के दम पर खुद को खलीफा घोषित कर दिया। उसने इमाम हुसैन से वफ़ादारी की मांग की। हुसैन ने साफ़ इनकार कर दिया और कहा, “मैं ज़ालिम, बेईमान और खुदा को न मानने वाले शासक का साथ नहीं दे सकता।”

मक्का से मदीना, फिर कर्बला की काली ज़मीन

इमाम हुसैन ने मक्का का रुख़ किया। मगर वहाँ भी हत्या की साज़िशें शुरू हो गईं। लिहाज़ा वे अपने परिवार और 71 साथियों के साथ कर्बला (इराक) की ओर निकल पड़े।

तीन दिन की प्यास और इंसानियत का इम्तिहान

कर्बला में यज़ीद की सेना ने हुसैन और उनके कुनबे का पानी बंद कर दिया। छोटे बच्चे, बुज़ुर्ग, महिलाएं – सब प्यास से तड़पते रहे। इसके बावजूद हुसैन ने जंग से इनकार किया।

10 मोहर्रम (आशूरा): जब कर्बला की रेत पर इंसाफ़ लहूलुहान हुआ

मोहर्रम की 10वीं तारीख को यज़ीद की एक लाख की फौज ने हुसैन और उनके साथियों पर हमला कर दिया। हुसैन ने अंतिम सांस तक जुल्म के खिलाफ़ खड़े रहना चुना। एक-एक कर उनके बेटे, भाई, भतीजे, और 6 महीने के बेटे अली असगर तक को शहीद कर दिया गया।

यज़ीद ने जला दिए खेमे, औरतों को कैद किया गया

जंग के बाद न सिर्फ़ हुसैन का सिर क़लम किया गया, बल्कि उनके तंबू भी जला दिए गए। उनके परिवार की महिलाएं – जिनमें बिबी ज़ैनब भी थीं – कैद कर ली गईं और शिया मुसलमानों के लिए वह दिन इंसाफ़ की मौत बन गया।

इमाम हुसैन का पैग़ाम आज भी ज़िंदा है

हुसैन की शहादत ने दिखाया कि इस्लाम तलवार से नहीं, बल्कि इंसाफ़ और मोहब्बत से चलता है। उन्होंने मरते हुए भी दुनिया को अहिंसा, सहनशीलता और सत्य की ताक़त का पैग़ाम दिया।

मोहर्रम में मातम क्यों?

मोहर्रम के पहले 10 दिनों में दुनिया भर में ताज़िए, अलम, और मातमी जुलूस निकाले जाते हैं। लोग खुद को तकलीफ़ देकर हुसैन की तकलीफ को महसूस करने की कोशिश करते हैं – ताकि जुल्म के खिलाफ़ खड़ा होने की प्रेरणा मिले।

आज के दौर में हुसैन का पैग़ाम क्यों ज़रूरी है?

जब आज भी धर्म के नाम पर नफरत, आतंकवाद और नफ़रत की राजनीति की जा रही है, ऐसे में इमाम हुसैन की शहादत हमें याद दिलाती है कि सच्चा धर्म वो है, जो ज़ालिम के खिलाफ़ हो और मज़लूम के साथ

हुसैन नहीं मरे, वो तो अमर हो गए

हुसैन जिंदा हैं — हर उस आवाज़ में, जो ज़ुल्म के खिलाफ़ उठती है। मोहर्रम हमें याद दिलाता है कि धर्म सिर्फ़ कर्मकांड नहीं, बल्कि इंसाफ़ और इंसानियत का नाम है।

हुसैन का नाम लेते रहो… क्योंकि वो मज़हब नहीं, इंसानियत की रूह हैं।

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