चुनौती बन गई एक नज़्म: क्यों ‘हम देखेंगे’ से हिल जाती हैं हुकूमतें?

आशीष शर्मा (ऋषि भारद्वाज)
आशीष शर्मा (ऋषि भारद्वाज)

“हम देखेंगे” — यह सिर्फ़ एक पंक्ति नहीं, एक संकल्प है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की यह नज़्म उन लफ़्ज़ों का संगम है जो सत्ता के अन्याय, शोषण और तानाशाही के ख़िलाफ़ आम आदमी की उम्मीद और संघर्ष को आवाज़ देती है।

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क्यों डरती हैं हुकूमतें इस नज़्म से?

क्योंकि यह कविता सीधे-सीधे ज़ुल्म के ढांचे पर वार करती है। इसमें कोह-ए-गिराँ जैसे प्रतीक हैं जो जुल्म को पहाड़ जैसा ठोस बताते हैं, और फिर कहते हैं कि वह रूई की तरह उड़ जाएगा। यह एक कल्पना नहीं, बल्कि एक चेतावनी है — ज़ुल्म हमेशा के लिए नहीं होता।

अनल-हक़ का नारा — सत्ता के खिलाफ शुद्ध प्रतिरोध

उठेगा अनल-हक़ का नारा” — यह वही नारा है जिसे मंसूर हल्लाज ने कहा था और उसे सज़ा-ए-मौत मिली थी। फ़ैज़ इसे दोहराकर सत्ता को याद दिलाते हैं कि सच बोलने वाले मिटते नहीं, बल्कि अमर होते हैं।

सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रतीक

  • काबा से बुत हटाना — धार्मिक प्रतीकों का उपयोग कर यह दिखाया गया है कि कैसे झूठे भगवानों और नेताओं को हटाया जाएगा।

  • महकूमों के पाँव तले धरती का धड़कना — जनता की ताक़त का रूपक है।

जनता की सत्ता का सपना

कविता का अंत इस लाइन से होता है:

और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा, जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।

यह वह वक्त है जब सत्ता राजाओं या तानाशाहों के पास नहीं, बल्कि जनता के हाथों में होगी।

“हम देखेंगे” एक कविता नहीं, आंदोलन है। यह उन लोगों की आवाज़ है जो सदियों से दबाए जा रहे हैं। सत्ता इसे इसलिए डर से देखती है क्योंकि यह कविता लोगों को जगाती है, उठाती है, और बदलाव के लिए तैयार करती है।

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पढ़िए

हम देखेंगे

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिस का वादा है

जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ

रूई की तरह उड़ जाएँगे

हम महकूमों के पाँव-तले

जब धरती धड़-धड़ धड़केगी

और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर

जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से

सब बुत उठवाए जाएँगे

हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएँगे

सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी

जो मंज़र भी है नाज़िर भी

उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा

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