
इसराइल और हमास के बीच चल रहे युद्ध में सिर्फ़ आतंकवाद नहीं मारा जा रहा… मर रही है इंसानियत, और वो भी पूरे पश्चिमी समाज की राजनीतिक चुप्पी के साए में।
अवंतीपुरा मुठभेड़: त्राल में आतंकी ढेर, ऑपरेशन जारी – सुरक्षाबलों ने दी करारा जवाब
हर बम के साथ एक स्कूल ढहता है, हर मिसाइल के साथ किसी माँ की कोख उजड़ती है। लेकिन ट्रंप हों या यूरोपीय नेता — किसी की आंखें गीली नहीं, किसी का गला नहीं रुंधता। काश, उन्हें भी कभी किसी पिता की गोद में मरे बच्चे का चेहरा दिखे!
हमास को मिटाओ, लेकिन मासूमों को क्यों मरो?
अगर युद्ध आतंक के खिलाफ है, तो उसकी आग में क्यों झुलस रही हैं दूधमुंही बच्चियाँ, क्यों जल रहे हैं अस्पताल, क्यों ध्वस्त हो रहे हैं UN शेल्टर? क्या अब “कोलैटरल डैमेज” एक नई सभ्यता की स्वीकार्य परिभाषा बन गया है?
“हमास एक संगठन है, उसे खत्म करना युद्ध नीति हो सकती है, लेकिन गाज़ा की जनता कोई संगठन नहीं – वह संवेदनाओं की मिट्टी में जन्मा इंसान है।”
डोनाल्ड ट्रंप और पश्चिम से सवाल:
क्या मानवाधिकार केवल रूस-यूक्रेन में दिखते हैं?
गाज़ा की मलबों में दबे बच्चे क्या “अयोग्य नागरिक” हैं?
क्यों नहीं उठता कोई ओबामा या मैक्रों की ज़बान से एक भी शब्द उनके लिए?

जब ट्रंप कहते हैं – “हमास को जड़ से मिटा दो”,
तो क्या वे उस माँ की चीखें नहीं सुनते जिसकी तीन बेटियाँ एक ही रात में राख हो गईं?
“युद्ध सिर्फ बमों से नहीं लड़ा जाता, बल्कि वह इंसानियत के मानकों की परीक्षा भी होता है। इस बार की परीक्षा में पश्चिम पूरी तरह फेल हुआ है – संवेदना, नैतिकता और ज़मीर सब हार गए हैं।”
हमास को जवाब देना ज़रूरी है, लेकिन इंसानियत को मारकर नहीं। अगर युद्ध में दुश्मन के साथ-साथ मासूमों को भी कुचला जाए, तो इतिहास सिर्फ ‘जीत’ नहीं, ‘जुल्म’ भी लिखता है।
यह युद्ध कब थमेगा, यह तय करना नेताओं का काम है – लेकिन अगर मासूमों की लाशों पर कोई सत्ता टिकेगी, तो वह एक दिन खुद ही ढह जाएगी।
ये भारत है साहब, यहां नाम नहीं, नीयत बदलती है!” – चीन को दो टूक
