
जब बाबा रामदेव अपने गुलाब शरबत का प्रचार करने निकले, तो लगता है उन्होंने मार्केटिंग के साथ-साथ मिर्च-मसाला भी बोतल में भर दिया। “शरबत जिहाद” जैसा जुमला बोलकर उन्होंने शांति का पेय गरमा-गरम विवाद में बदल दिया।
कोर्ट का कड़क जवाब: ‘न्यायालय की अंतरात्मा को ठेस पहुंची है’
दिल्ली हाईकोर्ट ने इस बयान पर सख्त नाराजगी जताते हुए कहा – “इसका कोई औचित्य नहीं था।” जस्टिस अमित बंसल ने रामदेव के वकील से कहा कि अगली बार खुद बाबा अदालत में आएं। योग में संयम सिखाने वाले बाबा के शब्दों में अब आग क्यों है?
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हमदर्द बोला: ‘ये मार्केटिंग है या मजहब की मंडी?’
हमदर्द ब्रांड की ओर से वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने कहा, “यह अपमान नहीं, सीधा सांप्रदायिक हमला है।” बाबा ने आरोप लगाया कि रूह अफ़ज़ा बेचकर मदरसे बन रहे हैं। तो क्या अब हर शरबत की तली में धर्म देखा जाएगा?
रामदेव की सफाई: ‘मैंने किसी का नाम नहीं लिया’
बाबा बोले – “हमने तो किसी ब्रांड या समुदाय का नाम नहीं लिया।” लेकिन बात वही हो गई जैसे चाय में ज़हर मिलाकर कहना – “मैंने ज़हर का नाम थोड़े न लिया!”
Patanjali या ‘Propaganda-anjali’?
कभी आयुर्वेद से क्रांति लाने वाले बाबा, अब बयानबाज़ी से प्रलय लाने लगे हैं। सवाल उठता है — क्या पतंजलि अब Fast Moving Consumer Goods नहीं, बल्कि Fast Moving Communal Gimmicks बन गई है?
राजनीतिक योगा
बाबा रामदेव का शरीर भले ही वज्र जैसा हो, पर विचार अब तलवार जैसे धारदार लगते हैं। प्रचार की मुद्रा में अब ‘अनुलोम-विलोम’ नहीं, ‘विवाद-प्रसार’ दिखता है।
बाजार में स्वाद की टक्कर होनी चाहिए, मजहब की नहीं। ग्राहक स्वाद से खिंचता है, सांप्रदायिकता से नहीं। शरबत में गुलाब रहे तो बेहतर है, ज़हर नहीं।