
1936 में बनी फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ आज भले ही ब्लैक एंड व्हाइट हो, लेकिन उस दौर में इसने जातिवाद की सोच को रंग-बिरंगे बहसों में झोंक दिया था।
बॉम्बे टॉकीज़ का यह मास्टरपीस, जिसे फ्रांज़ ओस्टेन ने डायरेक्ट किया और देविका रानी–अशोक कुमार ने अमर बना दिया, सिर्फ़ एक प्रेम कहानी नहीं थी — यह एक सामाजिक घोषणा थी।
कहानी: मोहब्बत बनाम मनुवाद
प्रताप (अशोक कुमार) एक ब्राह्मण लड़का और कस्तूरी (देविका रानी) एक ‘अछूत’ लड़की — बचपन की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, समाज को यह तो मंज़ूर नहीं था।
“प्यार जात नहीं पूछता, पर समाज जरूर पूछ लेता है आधार कार्ड!”
गाँव के डॉक्टर से लेकर मन्नू की एक्स वाइफ तक, सब मानो कास्ट सिस्टम के कस्टमर केयर पर काम कर रहे हों। कहानी में मेला है, साजिश है, ट्रेन है और रेलवे क्रॉसिंग पर क्लाइमैक्स ऐसा है कि दिल रो दे, आँखें फिसल जाएं।
किरदार जो कह गए बहुत कुछ, बिना ज़्यादा बोले
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देविका रानी ने जिस गरिमा से “अछूत” लड़की का किरदार निभाया, वह आज के डायलॉग-हैवी एक्टिंग से कहीं आगे था।
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अशोक कुमार की यह पहली फ़िल्म थी और कह सकते हैं, वो सीधे ‘लीजेंड’ मोड में एंटर हुए थे। बाकी कास्ट जैसे मनोरमा, प्रमिला, अनवर — सब मिलकर उस दौर के टीवी सीरियल से बेहतर कर गए।
संगीत और संदेश दोनों Evergreen
सरस्वती देवी का संगीत और जेएस कश्यप के बोलों ने फ़िल्म को भावनाओं से जोड़ दिया। हर सीन में बैकग्राउंड स्कोर न बजता तो भी आपको स्क्रीन से बांधे रखता — यही इस फ़िल्म का जादू है।
फ़िल्म या सुधार आंदोलन?
‘अछूत कन्या’ अपने वक्त से बहुत आगे की सोच लेकर आई। जहाँ बाकी फ़िल्में हीरो-हीरोइन को पेड़ों के इर्द-गिर्द घुमा रही थीं, यह फ़िल्म जातिगत भेदभाव को खुलेआम लताड़ रही थी।
1936 में जो मुद्दा उठाया गया, 2025 में वो संसद में बहस है — सिनेमा आगे था, है और रहेगा।
समाज का स्यापा
अगर यह फ़िल्म आज बनती, तो शायद ट्विटर पर ट्रेंड करती: #BrahminBoyDalitGirlLove और कस्तूरी को ट्रोल किया जाता कि “दूसरे धर्म में क्यों नहीं भाग गई?”
मगर इस फ़िल्म ने वो सब किया जो आज की स्क्रिप्ट राइटर्स केवल सबटाइटल में लिखते हैं।
‘अछूत कन्या’ कोई नॉस्टैल्जिक रिव्यू नहीं, बल्कि रीविज़न है उस दौर की, जब सिनेमा सच बोलता था और समाज चुप रहता था।
देविका रानी की आंखें, अशोक कुमार का संयम और कहानी की मासूम क्रांति — यह फ़िल्म सिर्फ़ देखी नहीं, समझी जाती है।
आज के OTT यूज़र, रिमोट छोड़िए और 1936 का यह रिमोट गाँव देखिए, जहां एक “अछूत” कन्या ने पूरे समाज को आइना दिखाया था।
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