जब ‘पत्नी’ शब्द सुनते ही मर्द काँपने लगे: क्या हर औरत हत्यारी है?

साक्षी चतुर्वेदी
साक्षी चतुर्वेदी

हाल के दिनों में, जैसे ही कोई बीवी अपने पति की तरफ़ चाकू, ज़हर या नीले ड्रम से इशारा करती है, सोशल मीडिया पर हाहाकार मच जाता है—”अब तो मर्द जाति ख़तरे में है!” हर चायवाले से लेकर ट्विटर स्कॉलर तक यही साबित करने में जुट जाते हैं कि बीवियों की बेकाबू हो चुकी बगावत, मर्दों के लिए ज़हर बन गई है।

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नीला ड्रम: हाउसवाइफ से हॉरर वाइफ तक की यात्रा

मेरठ के सौरभ राजपूत केस में ‘नीला ड्रम’ सिर्फ़ एक सबूत नहीं, सोशल मीडिया का नया मीम बन चुका है। मर्दों की व्हाट्सएप यूनियन अब हर बहस की शुरुआत इसी से करती है:
“भाई, तूने सुना? ड्रम वाला केस?”
“हाँ! बीवियाँ अब स्टील की थाली नहीं, ड्रम इस्तेमाल कर रही हैं।”

अब सब कह रहे हैं: स्त्रियाँ भी हत्यारिन होती हैं! लेकिन…

अब थोड़ा सोचिए, क्या हर हत्या की वजह महिला की खून-पीने वाली फितरत है या फिर वो सिस्टम है जिसने उसे सदियों से दबाया है?
स्त्रियाँ भी वही जहरीली पितृसत्ता पीती हैं, जिसमें मर्द बड़े हुए हैं। तो अगर कुछ स्त्रियाँ उसी ज़हरीली भाषा में जवाब दे रही हैं, तो यह व्यक्तिगत हिंसा है, व्यवस्था नहीं।

मीडिया की मिर्ची और मर्दों की मासूमियत

हर ऐसी घटना को टीवी चैनल ‘क्राइम सीरियल’ बना देते हैं। नाम भी क्या कमाल के देते हैं – “खूनी बीवी”, “साजिशन सुहागरात”, “ड्रम वाली दुल्हन”।
कितना आसान है, किसी एक घटना से पूरी स्त्री जाति को दोषी ठहराना!

लेकिन जब वही चैनल स्त्रियों पर हो रही दहेज, बलात्कार या ऑनर किलिंग की खबरें दिखाते हैं, तो TRP गिरने लगती है।

तो क्या हर पत्नी अपराधी है? क्या हर पति बेचारा है?

नहीं साहब, बिल्कुल नहीं।
स्त्री की हिंसा और पुरुष की हिंसा एक जैसी नहीं है।
स्त्री की हिंसा – तात्कालिक, अक्सर किसी दबाव, निराशा, या भावनात्मक घुटन से उपजी।
जबकि मर्दों की हिंसा – संस्था बन चुकी है: शादी में, प्रेम में, दफ्तर में, सोशल मीडिया पर।
और हाँ, अक्सर स्त्री की हिंसा के पीछे भी कोई पुरुष मित्र या ‘प्रेमी’ मददगार बनता है।

तो अगर दोष देना ही है, तो शायद आपको पूरी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करना चाहिए, ना कि सिर्फ़ बीवी को।

हिंसा पर ह्यूमर से नहीं, ह्यूमन राइट्स से जवाब दीजिए

कोई भी हिंसा – स्त्री करे या पुरुष – ग़लत है।
मगर ह्यूमर के नाम पर मर्द बनाम औरत की मज़ाक उड़ाना इस सामाजिक जहर को और फैलाता है।
तो ज़रूरत है:

  • स्त्रियों को साथी चुनने का हक़ देने की

  • मर्दों को भी मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा देने की

  • हर हिंसा का रिकॉर्ड और विश्लेषण करने की

  • ह्यूमर से ज़्यादा ह्यूमन अधिकार पर ध्यान देने की

तो अगली बार जब आप ‘पत्नी’ शब्द सुनें…

तो प्लीज़ ‘ड्रम’ मत सोचिए,
बल्कि ये सोचिए –
क्या हम अब भी उस सिस्टम में हैं, जहाँ स्त्री की स्वतंत्रता को शक की नज़रों से देखा जाता है, और उसकी हर प्रतिक्रिया को अपराध बना दिया जाता है?

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