“Vande Mataram Controversy – 150 साल बाद भी विवाद ज़िंदा!”

भोजराज नावानी
भोजराज नावानी

भारत का राष्ट्रगीत “वंदे मातरम” 150 साल का हो गया — देशभर में कार्यक्रम हुए, पीएम मोदी ने स्मारक डाक टिकट और सिक्का जारी किया, लेकिन मुंबई में इस गौरवमयी अवसर पर राजनीति का पुराना राग फिर बज उठा है।

अबू आजमी का बयान – “वंदे मातरम नहीं बोलेंगे मुसलमान”

समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आसिम आजमी ने कहा — “कोई मुझसे वंदे मातरम नहीं बुलवा सकता। मुसलमान सूरज या जमीन की पूजा नहीं करता, इस्लाम में सिर्फ अल्लाह की इबादत होती है।”

उन्होंने यह भी कहा कि “जैसे आप नमाज़ नहीं पढ़ सकते, वैसे ही कोई मुसलमान वंदे मातरम नहीं बोल सकता।”
बस, इतना कहना था कि ट्विटर से लेकर टीवी स्टूडियो तक बवाल मच गया!

विवाद की जड़ — BJP vs SP की ‘वंदे मातरम’ पॉलिटिक्स

दरअसल, मुंबई बीजेपी अध्यक्ष अमित साटम ने आजमी को अपने घर के पास होने वाले “वंदे मातरम गायन कार्यक्रम” में शामिल होने का खुला निमंत्रण दिया था। साटम ने एक्स (Twitter) पर उनका नाम टैग कर कहा — “देश के हर नागरिक को वंदे मातरम पर गर्व होना चाहिए।”

अबू आजमी ने जवाब दिया — “सुप्रीम कोर्ट का आदेश है — किसी को जबरन राष्ट्रगीत गाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।”

उन्होंने यह भी जोड़ा कि ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ जैसा कानूनी दर्जा नहीं दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट का संदर्भ क्या है?

आजमी ने अपने बयान में जिस फैसले का ज़िक्र किया, वो वही केस है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था — “किसी व्यक्ति को वंदे मातरम या राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, यह धर्म और अंतरात्मा की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा।”

यानि कानूनी रूप से बात गलत नहीं, लेकिन राजनीति में सही-गलत की जगह ‘ट्रेंड’ चलता है!

150 साल बाद भी क्यों ज़िंदा है यह बहस?

1875 में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘वंदे मातरम’ लिखा था, 1896 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। आज़ादी की लड़ाई में ये गीत संघर्ष का प्रतीक बन गया। पर स्वतंत्र भारत में, हर बार जब चुनाव या राष्ट्रीय पर्व आता है — ‘वंदे मातरम’ फिर राजनीतिक मुद्दा बन जाता है।

भारत में “वंदे मातरम” गाने से ज़्यादा “कौन नहीं गा रहा” पर बहस हो रही है। कोई बोले या ना बोले, पर हर बार वंदे मातरम फिर हमें एकता की याद और राजनीति की चाल दोनों दिला जाता है।

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