मैं वक्त हूं, नवाबी दौर की पहचान। मैं खड़ा हूं उसी जगह पर जहां से लखनऊ की तहज़ीब की पहली झलक मिलती है।मैं हूं रूमी दरवाजा। जिसने नवाबों को, अंग्रेजों को, आज़ादी के मतवालों को और अब तुम सबको भी देखा है। लेकिन आज — तुम मुझे देख नहीं रहे हो। तुम मेरी मेहराबों में इतिहास नहीं, बस अपनी SUV और बाइक की जगह ढूंढते हो। “इतिहास की गोद में अब गाड़ियां पल रही हैं” कभी जहां इश्क-ओ-इंकलाब की बातें होती थीं, आज वहां “गाड़ी यहां लगाओ तो साया मिलेगा” जैसी…
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111 साल बाद भी “चारबाग स्टेशन से ट्रेनें भी फुसफुसा के निकलती हैं!”
लखनऊ का चारबाग स्टेशन सिर्फ ट्रेन पकड़ने की जगह नहीं, यह एक जीती-जागती म्यूज़ियम है।1914 में बिशप जॉर्ज हर्बर्ट ने इसकी नींव रखी और जब 1923 में बनकर तैयार हुआ, तो अंग्रेजों ने कहा—”अब भारतीयों को छांव तो मिल गई, लेकिन सीट नहीं!”9 साल लगे इसे बनाने में, और 70 लाख रुपये खर्च हुए (जो उस वक्त का “रेल बजट” ही था!)। बिना आवाज़ वाली ट्रेनें—जादू नहीं, आर्किटेक्चर है! चारबाग स्टेशन की सबसे दिलचस्प बात ये है कि ट्रेन की आवाज़ बाहर नहीं आती। क्यों? क्योंकि इसका आर्किटेक्ट ऐसा था…
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