1952 की ऐतिहासिक फिल्म ‘आनंद मठ’ को सिर्फ एक “क्लासिक फिल्म” कहना उसके साथ अन्याय होगा। यह फिल्म एक धार्मिक-सांस्कृतिक क्रांति की सिनेमाई व्याख्या है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध बंगाली उपन्यास पर आधारित यह फिल्म संन्यासी विद्रोह की पृष्ठभूमि में आज़ादी की चिंगारी को एक नया चेहरा देती है। और हां, इसमें ‘साधु-संत’ सिर्फ प्रवचन नहीं, क्रांति का नेतृत्व करते हैं। रेट्रो सिनेमा के लिए इससे ज़्यादा metal कुछ नहीं हो सकता। कहानी में तप और ताव दोनों 18वीं शताब्दी का बंगाल। भूख, भय और फिरंगियों का आतंक। ऐसे…
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रेट्रो रिव्यू : “बरखा” — तड़पाओगे तड़पा लो, पर इस क्लासिक को मिस मत करो
1959 में जब जगदीप को हीरो बनाया गया, तो सिनेमा प्रेमियों ने भी हैरानी से छाता खोल लिया — “ये वही कॉमिक जगदीप हैं?” लेकिन बरखा में उन्होंने पारंपरिक हीरो के सारे गुण निभाए। सीरियस भी लगे और रोमांटिक भी। और वो सैलाब वाला सीन… तड़पाओगे तड़पा लो बस वही मूड था! नंदा: बारिश में भी भीगी नहीं, बस नज़रों से बहा ले गईं नंदा का रोल पार्वती के रूप में बेहद ग्रेसफुल है। सादगी, समर्पण और संस्कार के ऐसे पैकेज के साथ उन्होंने साबित किया कि बरखा सिर्फ मौसम…
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