वन नेशन, वन इलेक्शन: देश चलेगा एक साथ या फिर नेता लेंगे एक साथ छुट्टी?

पदमपति शर्मा
पदमपति शर्मा

क्या आप भी चुनावी थकान से परेशान हैं? हर 6 महीने में कोई ना कोई नेता माइक पकड़ कर ‘भाइयों और बहनों’ बोलने लगता है? तो सरकार लाई है – ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ स्कीम!

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फायदे:
सेव मनी! अब चुनाव आयोग को बार-बार EVM बैग नहीं उठाने पड़ेंगे।
सेव टाइम! जनता एक बार ही छुट्टी लेगी, फिर 5 साल चैन से काम करेगी (या छुट्टी लेती रहेगी)।
सेव नेता! जो नेता हर बार हारते हैं, उन्हें अब साल में एक ही बार हार का स्वाद चखना पड़ेगा।

नुकसान:
जनता की मनोरंजन सेवा बंद! चुनावी मौसम में जो फ्री WiFi वाले वादे मिलते थे, वो भी अब सालों में एक बार होंगे।
नेता करेंगे लम्बा वेटिंग गेम! अब मंत्री बनने के लिए नेताओं को 5 साल की लम्बी लाइन लगानी पड़ेगी – जैसे रेलवे में कन्फर्म टिकट!
TRP का नुकसान! न्यूज़ चैनलों का क्या होगा?

तो भाईयों और बहनों, सोच लो – आपको बार-बार वोट डालने में मज़ा आता है या बार-बार एक ही वादा सुनने में? क्योंकि आखिर में सवाल एक ही है – “विकास किसका होगा – जनता का या जुमलों का?”

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आख़िर में, वन नेशन, वन इलेक्शन केवल एक प्रशासनिक बदलाव नहीं है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र की प्रकृति और उसके कामकाज को गहराई से प्रभावित करने वाला विचार है। यह निश्चित रूप से खर्चों की बचत और नीति-निर्माण में निरंतरता ला सकता है, लेकिन साथ ही यह क्षेत्रीय विविधताओं, संघीय ढांचे और मतदाताओं की स्थानीय भागीदारी को प्रभावित कर सकता है।

हास्य के परे यह ज़रूरी है कि हम इस मुद्दे पर खुली बहस करें—ना सिर्फ़ राजनीतिक नज़रिए से, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से भी। क्योंकि लोकतंत्र केवल वोट डालने का पर्व नहीं, बल्कि जनता की निरंतर भागीदारी और जागरूकता का नाम है।

फैसला आखिर में आपका है—एक साथ चुनाव से क्या सच में “एक साथ विकास” होगा, या फिर लोकतंत्र की विविधता कहीं पीछे छूट जाएगी?

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