
भारत की राजनीति में अक्सर यह कहा जाता है कि “देश के नेता भुट्टे की फसल जैसे होते हैं।” यह बयान जितना मजेदार लगता है, उतना ही गहरा अर्थ भी रखता है। भुट्टे के चमकदार दाने जैसे दिखने वाले नेता, जब जनता से वोट मांगते हैं, तो लोग उनकी चमक-दमक और वायदों के पीछे का सच देख नहीं पाते। लेकिन जैसे ही चुनावी दौर खत्म होता है और सरकारें बनती हैं, जनता को अंदर की खालीपन का एहसास होता है।
राजनीति में क्या है भुट्टे जैसा फर्क?
भुट्टे के दाने बाहर से चमकदार होते हैं, लेकिन जब आप उसे खोलते हैं, तो अक्सर उसके अंदर खालीपन होता है। यही स्थिति हमारे नेताओं की होती है। चुनावों में नेताओं के वादे और उनका प्रचार-प्रसार जनता को आकर्षित करता है। जनता, उन चमकदार वादों की ओर आकर्षित होती है, मानो यह भुट्टे के चमकते दाने हो। लेकिन जब सत्ता में आने के बाद नेताओं से उम्मीदें पूरी नहीं होतीं, तो जनता को निराशा का सामना करना पड़ता है।
वोट देने के बाद का क्या होता है?
वोट देने के बाद जनता को जो मिलती है, वह केवल हताशा और निराशा ही होती है। जैसे भुट्टे के दाने में केवल खोखलापन हो सकता है, वैसे ही नेताओं की राजनीति भी अक्सर खोखली साबित होती है। फिर जनता के पास कोई रास्ता नहीं होता, सिवाय इस “भुट्टे” से काम चलाने के। चुनावी मुद्दों के बाद, असली राजनीति का चेहरा सामने आता है और जनता खुद को ठगा हुआ महसूस करती है।
क्या करें, जब यही नेता दिखते हैं?
जनता को इन नेताओं से ही काम चलाना है। जैसे भुट्टे का कोई दूसरा विकल्प नहीं होता, वैसे ही हमारी राजनीति भी एक तरह से इन नेताओं पर निर्भर रहती है। कभी-कभी यही नेता होते हैं जो चुनाव जीतते हैं और फिर उन्हें हर बार वही हीन स्थिति में जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती मिलती है।

भुट्टे के चमकते दानों से भरे नेताओं के वादों को हम ऐसे ही लेते हैं, जैसे हम एक बड़े जश्न के बाद खाली पेट रह जाते हैं। नेताओं की चमक-दमक के बाद जब असलियत सामने आती है, तो यही महसूस होता है—“क्या करेंगे, अब यही भुट्टे तो मिलते हैं।”
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