
फौलाद की कहानी सीधे-साधे प्रेम से नहीं, बल्कि शाही दरबार की भविष्यवाणी, जातिगत पृष्ठभूमि, और सत्ता की भूख से शुरू होती है। एक महाराजा जब यह सुनता है कि उसकी बेटी किसी “नीच जाति” के युवक से शादी करेगी और उसकी गद्दी खतरे में पड़ जाएगी, तो वह सारे नवजात निम्न जाति के लड़कों को मरवाने का आदेश देता है।“इतिहास गवाह है – जब नेताओं को अपनी कुर्सी डगमगाती दिखे, तो उनका पहला निशाना आम जनता ही होती है – फिर चाहे वो फिल्म हो या संसद।”
अमर बना फौलाद – दारा सिंह की देसी हीरो वाली एंट्री
छोटा अमर, नदी में बहता हुआ, किस्मत से शाही महल पहुंचता है और बड़ा होकर दारा सिंह बनता है। मतलब – बचपन से ही स्टंट की ट्रेनिंग फ्री में मिल गई।
दारा सिंह के अभिनय में वो दम था कि स्क्रीन देखकर ही दर्शकों की हड्डियां खड़खड़ाने लगती थीं। हाथों में तलवार नहीं, खुद उनका ‘धमाका पंच’ ही दुश्मनों का काल था।
राजकुमारी पद्मा और अमर – लव स्टोरी में भी एक्शन
मुमताज का किरदार पद्मा, जो शाही ठाठ में पली-बढ़ी, एक आम युवा अमर के प्यार में पड़ जाती है। शाही दरबार में लव अफेयर हो तो राजनीतिक षड्यंत्र तो बनते हैं!
राजकाज से लेकर रिश्ते तक सब “रॉयल डिस्क्लेमर” के साथ आते हैं।
मंत्री का षड्यंत्र – हर दरबार में होता है एक ‘पॉवर प्लेयर’
रणधीर का किरदार निभाने वाले मंत्री की भूमिका राजनीतिक सटायर का जीता-जागता उदाहरण है।
“हर सत्ता के पीछे एक ऐसा मंत्री होता है जो बोलता कुछ है और चाहता कुछ और।”
संगीत: आशा भोसले और रफ़ी की आवाज़ में 60s की ताजगी
फ़ारूक कैसर के गीत और मोहम्मद रफ़ी व आशा भोसले की गायिकी ने फिल्म को क्लासिक बना दिया।
गाने जैसे:
-
“दिल है हमारा फूल से नाज़ुक”
-
“जाने जाना यूं ना देखो”
आज भी पुराने गानों के प्रेमियों की प्लेलिस्ट में ज़िंदा हैं।
“कहानी में मटन नहीं था, लेकिन राजनीति ज़रूर थी”
60 के दशक की इस फिल्म में आज के दौर की राजनीति की झलक दिखती है। जाति का डर, गद्दी का लालच और प्रेम की शक्ति – सब कुछ फिल्म में ऐसे परोसा गया है जैसे किसी नेता की स्पीच में विकास, धर्म और राष्ट्रीयता।
कास्ट पर एक नज़र:
-
दारा सिंह – अमर के रूप में, असली ‘ह्यूमन हल्क’
-
मुमताज – राजकुमारी पद्मा, खूबसूरती और अभिनय की रानी
-
रणधीर – सत्ता के भूखे मंत्री
-
मीनू मुमताज, प्रवीण पॉल, कमल मेहरा – अपने-अपने किरदारों में सटीक
फौलाद (1963) एक ऐसी फिल्म थी जो एक्शन, संगीत, प्रेम और सत्ता की साज़िश को शानदार तरीके से एक साथ पेश करती है। दारा सिंह और मुमताज की जोड़ी ने इस फिल्म को ‘फौलादी क्लासिक’ बना दिया।
सावन में शिवभक्ति या मटनभक्ति? NDA नेताओं की प्लेट से निकला बकरा!