‘इमरजेंसी’ याद है, क्योंकि ये ‘डिलीट’ नहीं, ‘सेव’ हो चुकी है!

जीशान हैदर
जीशान हैदर

25 जून 1975 की रात को देश का रिमोट कंट्रोल दिल्ली से डायरेक्ट ‘आपातकाल’ मोड पर डाल दिया गया। इंदिरा गांधी, जिन्हें पहले जनता ने “लौह महिला” कहा था, उसी रात संविधान को भी लोहा मान लिया।

Emergency Anniversary: पीएम बोले – लोकतंत्र को बंधक बना लिया गया था

हाई कोर्ट ने कर दिया ‘नो बॉल’, इंदिरा ने खेल ही बदल दिया

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनाव में गड़बड़ी का दोषी ठहराया। मामला फिक्स नहीं था, पर फैसला फिक्स लगने लगा। कोर्ट ने जैसे ही कहा “Invalid”, इंदिरा जी ने कहा — “आपातकाल!” मतलब ‘अब संविधान मेरी मर्जी से चलेगा’।

मौलिक अधिकार: अभी नेटवर्क में नहीं हैं

आपातकाल में देश के नागरिकों के मौलिक अधिकार ऐसे गायब हुए जैसे ऑनलाइन ऑर्डर से कस्टमर केयर। बोलना मना, सोचना रिस्की, लिखना तो क्राइम! प्रेस को प्रेस करने वाले सेंसर अफसर तैनात कर दिए गए। अगर आपने सरकार के खिलाफ कुछ छाप दिया तो अगली सुबह की चाय जेल में मिलेगी।

जेल में VIP मीटअप: विपक्ष की ‘रीयूनियन पार्टी’

अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जयप्रकाश नारायण जैसे नेता जेल में ऐसे मिले जैसे आजकल नेताओं की मीटिंग पांच सितारा होटल में होती है। जेल में जगह की इतनी कमी थी कि बैरक शेयरिंग करनी पड़ी।

संजय गांधी: एक व्यक्ति, अनेक प्रोजेक्ट

संजय गांधी ने कहा ‘पॉप्युलेशन कंट्रोल चाहिए’, और शुरू हो गई जबरन नसबंदी। तुर्कमान गेट पर बुलडोजर चले, और दिल्ली की गलियों से इंसानियत रोते हुए गुजरी। ये सब हुआ और इंदिरा गांधी को ‘नहीं पता’ था — बिलकुल वैसा जैसे लोग शादी में खाना ख़राब होने पर कहते हैं ‘हमें तो बताया ही नहीं’।

चुनाव का एलान और ऐतिहासिक हार

1977 में इंदिरा गांधी को लगा कि ‘लोग माफ कर देंगे’, पर जनता ने इमरजेंसी का ‘फीडबैक फॉर्म’ भरकर वोटिंग मशीन में ‘रिजेक्ट’ का बटन दबा दिया। 340 सीटें का सपना देखने वाली कांग्रेस सिर्फ 153 सीटों पर सिमट गई।

आज की राजनीति में ‘1975’ अब भी Trending

भाजपा ने एक बार फिर कांग्रेस पर हमला करते हुए कहा कि ‘जो लोकतंत्र को खत्म कर चुके हैं, वो अब उसकी रक्षा का दावा कर रहे हैं!’
उधर कांग्रेस कहती है — “अब बहुत पुरानी बात हो गई, इतिहास से सीखो!” लेकिन इतिहास कहता है — “मैं बार-बार दोहराया जाता हूं जब आप मुझे भूलते हैं।”

1975 का आपातकाल भारत के लोकतंत्र का ऐसा ‘काला अध्याय’ है, जिसे बार-बार रिवाइंड किया जाता है — कभी सत्ता के खिलाफ तो कभी सत्ता में रहने वालों को याद दिलाने के लिए।
ये घटना सिर्फ इतिहास नहीं, राजनीतिक विमर्श का लाइव हिस्सा है — और शायद यही इसकी ट्रैजडी भी है, और कॉमेडी भी।

कलेक्टर नहीं बने, तो क्या ज़िंदा रहना भी ज़रूरी नहीं?” —नंबरों की राजनीति

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