
उत्तर प्रदेश हो या बिहार, जब कोई नेता जी राजनीति की दहलीज़ पर पहला कदम रखते हैं, तो उनका पहला पड़ाव होता है — अपनी बिरादरी का दरबार। वहीं पहुंचकर वह अपने “सामाजिक DNA” का हवाला देते हैं, और धीरे-धीरे ‘अपने लोग’ उन्हें अपना नेता मान लेते हैं।
और फिर? शुरू होती है वो स्क्रिप्ट जो हर चुनाव में रिपीट होती है — सिर्फ़ पार्टी का नाम बदलता है।
चंदा, चर्चा और चरित्र निर्माण का कॉम्बो पैक
नेता जी धीरे-धीरे विरादरी में “धन विहीन संरचना” का हवाला देते हुए चंदा मांगना शुरू कर देते हैं। “भाई, समाज के लिए करना है!”
और समाज समझता है — “ये तो अपना लड़का है!”
पर जैसे ही चुनाव आता है, नेता जी विरादरी में जोश भरने निकल पड़ते हैं — मानो नया सीजन लॉन्च हो गया हो।
विकास का रॉकेट — एकतरफा उड़ान
नेता जी जब सत्ता में पहुंचते हैं, तो विकास के नाम पर बस एक ही गली चमकती है — उनका घर, उनका दफ्तर, और उनका बैंक अकाउंट।
बिरादरी?
अबे यार… वो तो वैसे ही सदियों से संघर्षरत थी — थोड़े और दशक सही!
जातिवादी दलों की नौटंकी
MIM, पीस पार्टी, लोजपा, हम, SVSP — इन सबके नेता जी चुनाव नजदीक आते ही “बिरादरी को जगाने” के टूर पर निकल पड़ते हैं।
“अबकी बार, अपनी सरकार!”
लेकिन फिर भी वही बेरोजगारी, वही टूटी हुई स्कूल की बिल्डिंग, वही ठप उद्योग। क्या बिरादरी के लोग अब भी नेता जी की SUV की चमक से धोखा खा रहे हैं?

मांग पत्र का सियासी ड्रामा
हर चुनाव से पहले ये नेता सत्ता दल को “बिरादरी की दशा सुधारो वरना वोट नहीं मिलेगा!” कह कर ब्लैकमेल करते हैं। और जब सीट नहीं मिलती, तो खुद को सामाजिक क्रांतिकारी घोषित कर देते हैं।
सच्चाई?
सिर्फ एक सीट पर भी जीत नहीं सकते अगर पार्टी का छाता न हो।
नेता को फल, जनता को सूखा पेड़
गांव में जाकर देखिए — स्कूल में मास्टर नहीं, अस्पताल में डॉक्टर नहीं, रोजगार तो सपना है। पर नेता जी के बेटे का एडमिशन अमेरिका में और घर के बाहर 5 लाख की गाड़ी।
विरादरी?
वो अब भी सिर्फ़ जाति सूची में टिक मार्क बनकर रह गई है।
बिरादरी नहीं, बिरादरीवाद का विकास हुआ है
सच्चाई यही है — विरादरी का उपयोग नेता जी की सीढ़ी है, ऊपर चढ़ने की। चुनाव आते ही “अपना-पन” जागता है, और जीतते ही “अपना बैंक बैलेंस”।
अब तय आपको करना है — नेता चुनिए, या नौटंकी?
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