
जब भारत और पाकिस्तान के बीच “ऑपरेशन सिंदूर” के बाद अचानक सीजफायर का ऐलान हुआ, तो डोनाल्ड ट्रंप की डिप्लोमैसी के चर्चे हर तरफ गूंजने लगे। व्हाइट हाउस में पाकिस्तानी फील्ड मार्शल को लंच पर बुलाकर ट्रंप साहेब ने शांति के ब्रांड एंबेसडर जैसी एंट्री मारी। फिर क्या—कुछ लोगों ने तो नोबल शांति पुरस्कार की बात भी शुरू कर दी!
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लेकिन उधर ईरान-इजरायल में अब भी आग लगी है
ट्रंप जी भारत-पाक के झगड़े में अगर रबड़ी चाचा की तरह दोनों को समझा-बुझा कर बैठा सकते हैं, तो फिर ईरान और इजरायल के बीच धधकती जंग क्यों नहीं बुझा पा रहे?
ईरान में यूरेनियम का डोज़ बढ़ रहा है, और इजरायल मिसाइलों से जवाब दे रहा है। इस बार ‘सीजफायर ट्वीट’ क्यों नहीं आया ट्रंप साहेब की टाइमलाइन पर?
नोबेल की भूख या सिर्फ प्रचार का भूगोल?
अब सवाल उठता है — क्या ट्रंप को वाकई नोबेल शांति पुरस्कार चाहिए, या सिर्फ शांति की तस्वीरें ट्विटर पर?
भारत-पाक की दोस्ती के लिए फोटोशूट करवा लिया, लेकिन तेल और टेंशन से जल रहे मिडल ईस्ट को क्यों छोड़ दिया?
अमेरिका का ‘डिप्लोमैटिक डबल स्टैंडर्ड’
ट्रंप और अमेरिकी विदेश नीति की ‘शांति नीति’ कुछ खास दोस्तों तक सीमित है। ईरान और इजरायल की जंग में ट्रंप की चुप्पी देख कर UNO भी सोच में पड़ गया होगा —क्या ट्रंप को नोबेल नहीं, नो बैल देना चाहिए?
नोबेल चाहिए? पहले नो-बोल की सूरत बनाइए!
भारत और पाकिस्तान को साथ बैठा कर वाहवाही बटोरने वाले ट्रंप से बस एक सवाल— “दुनिया के बाकी हिस्सों की शांति क्या अमेरिका के इलेक्शन कैंपेन पर डिपेंड करती है?”
शांति का नोबेल तब ही मिलता है, जब हर जंग में सुलह कराई जाती है — ना कि बस वहां, जहां PR अच्छा दिखे।
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