
भारत में राजनीति अब केवल नीतियों की लड़ाई नहीं रही, यह प्रतीकों और बयानों की टकराहट का अखाड़ा बन चुकी है। हाल ही में हुए ऑपरेशन सिंदूर के बाद राहुल गांधी के बयानों ने एक बार फिर एक पुराना सवाल खड़ा कर दिया है —
क्या राहुल गांधी में परिपक्वता की कमी है या यही उनकी राजनीतिक शैली है?
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ऑपरेशन सिंदूर पर उठाए सवाल
जब देशभर में भारतीय सेना के साहसिक अभियान “ऑपरेशन सिंदूर” की प्रशंसा हो रही थी, तब राहुल गांधी ने यह पूछकर सियासी तूफान खड़ा कर दिया कि “हमारे कितने जेट गिरे?”। उनके इस बयान पर भाजपा नेताओं ने तीखी प्रतिक्रिया दी।
अमित मालवीय ने तो यहाँ तक कह दिया कि “राहुल गांधी वही बोल रहे हैं जो पाकिस्तान की मीडिया बोल रही है।”
राजनीति या अपरिपक्वता?
यह पहली बार नहीं है जब राहुल गांधी ने ऐसे बयान दिए हों जो सत्ताधारी दल को बैठे-बिठाए मुद्दा थमा देते हैं। इससे पहले भी,
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सर्जिकल स्ट्राइक पर उन्होंने ‘खून की दलाली’ जैसी तीखी टिप्पणी की थी,
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बालाकोट एयरस्ट्राइक के समय उन्होंने सबूत मांगे थे,
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और अब ऑपरेशन सिंदूर पर भी शंका जताई।
यह सवाल उठता है —
क्या यह उनकी राजनीति की अपरिपक्वता है या एक रणनीतिक तौर पर अपनाई गई “कंट्रास्टिंग नैरेटिव”?
राहुल गांधी “भावनात्मक अपील आधारित विरोध” की रणनीति अपनाते हैं, जो 2014 के बाद तेजी से अप्रभावी होती गई है। उनका नेतृत्व अक्सर रक्षा नहीं, प्रतिवाद में उलझा रहता है, जिससे सत्ता पक्ष को उन्हें “एंटी-नेशनल नैरेटिव” से जोड़ने का मौका मिल जाता है।
जनता का विश्वास या उलझन?
जहां एक ओर उनके समर्थक उन्हें “जवाब मांगने वाला नेता” बताते हैं, वहीं विरोधी उनका उपहास उड़ाते हैं और गैर-गंभीर नेता की छवि गढ़ते हैं।
इसी असमंजस में राहुल गांधी की राजनीति न तो तेज़ धार बन पाती है, न ही पूरी तरह अप्रासंगिक होती है।
राहुल गांधी की राजनीति शैली एक पहेली बन चुकी है — एक ऐसा मेल जिसमें विरोध, भावुकता और कभी-कभी आत्मघाती बयानबाजी शामिल है। सवाल यह है कि यह शैली बदलने की जरूरत है या कांग्रेस इसी विरोध की लकीर को आगे बढ़ाकर सत्ता की वापसी की उम्मीद कर रही है?
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