
भारत सरकार ने पाकिस्तान की आतंकवाद पोषक नीतियों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बेनकाब करने के लिए एक नया राजनयिक अभियान शुरू किया है, जिसका नाम ‘ऑपरेशन सिंदूर’ रखा गया है। इस मिशन के तहत करीब 40 सांसदों को 7 अलग-अलग समूहों में बांटकर अमेरिका, ब्रिटेन, यूएई, जापान, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में भेजा जा रहा है।
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उद्देश्य क्या है?
इस अंतरराष्ट्रीय दौरे का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत का पक्ष मज़बूती से सामने रखा जाए और पाकिस्तान के दोहरे चरित्र को दुनियाभर में उजागर किया जाए। मिशन की विशेष बात यह है कि इसमें सत्ता और विपक्ष दोनों दलों के सांसदों को शामिल किया गया है, जिससे एक सर्वदलीय राष्ट्रीय एकजुटता का संदेश दिया जा सके।
लेकिन कांग्रेस और थरूर के बीच दिखी दरार
इस राष्ट्रीय एकता की तस्वीर के बीच एक सियासी दरार भी उभर आई —
शशि थरूर, जो कि एक वरिष्ठ कांग्रेस सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं, उन्हें केंद्र सरकार ने एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व सौंपा है। लेकिन कांग्रेस पार्टी की आधिकारिक सूची में उनका नाम नहीं था। कांग्रेस ने आनंद शर्मा, गौरव गोगोई, सैयद नसीर हुसैन और राजा बरार को प्रतिनिधिमंडल के लिए चुना था।
इस मुद्दे पर थरूर ने स्पष्ट कहा –
“राष्ट्रीय हित सर्वोपरि है। जब भारत का नाम आता है, मैं पीछे नहीं हट सकता।”
कांग्रेस की चुप्पी और थरूर की प्रतिबद्धता
कांग्रेस ने अब तक थरूर को लेकर कोई सार्वजनिक आपत्ति नहीं जताई है, लेकिन पार्टी महासचिव जयराम रमेश द्वारा जारी सूची में उनका नाम न होना यह संकेत देता है कि पार्टी नेतृत्व और थरूर के बीच संवादहीनता या असहमति है। विश्लेषकों का मानना है कि थरूर की बढ़ती राष्ट्रीय स्वीकार्यता और अलग विचारधारा के कारण पार्टी नेतृत्व उन्हें सीमित रखना चाहता है।
थरूर: सही नेता, सही मंच?
राजनयिक अनुभव की बात करें तो शशि थरूर का संयुक्त राष्ट्र में तीन दशक का कार्यकाल उन्हें इस प्रतिनिधिमंडल की सबसे उपयुक्त और प्रभावशाली आवाज़ बनाता है। वे विश्व पटल पर भारत का सटीक और मजबूत पक्ष रखने में सक्षम हैं।
कौन-कौन जा रहा है?
इस प्रतिनिधिमंडल में शामिल प्रमुख नेता हैं –
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शशि थरूर (कांग्रेस)
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रविशंकर प्रसाद (भाजपा)
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कनिमोझी (DMK)
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सुप्रिया सुले (NCP)
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संजय झा (JDU)
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बैजयंत पांडा (भाजपा)
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श्रीकांत शिंदे (शिवसेना)
मिशन राष्ट्रीय है, लेकिन राजनीति अपनी जगह है
‘ऑपरेशन सिंदूर’ भले ही राष्ट्रीय सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय छवि की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो, लेकिन इसमें भारतीय राजनीति की अंतर्कथाएं भी छिपी हैं। शशि थरूर की भूमिका इस अभियान को गंभीरता और अंतरराष्ट्रीय वजन देती है, जबकि कांग्रेस की चुप्पी उनके और पार्टी के बीच बढ़ती दूरी की ओर इशारा करती है।
भारत-पाक रिश्तों की सच्चाई को दुनिया के सामने लाने के इस प्रयास में, अगर घरेलू राजनीति के अंतरविरोध छिपाए न जा सकें, तो कम से कम राष्ट्रहित की आवाज़ सबसे ऊपर सुनाई दे — यही लोकतंत्र की जीत होगी।
‘ऑपरेशन सिंदूर’: जब राष्ट्रीय कूटनीति के मंच पर सियासी छाया पड़ने लगे…
(वरिष्ठ पत्रकार एवं एडिटोरियल एडवाइजर, Hello UP)
‘ऑपरेशन सिंदूर’ भारत सरकार की वह रणनीतिक पहल है जो पाकिस्तान के आतंकवाद पोषक चेहरे को दुनिया के सामने नंगा करने जा रही है। इस मिशन की सबसे बड़ी ताक़त यही है कि यह सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के माध्यम से भारत की एकजुटता को प्रस्तुत करता है। लेकिन इस अभियान की पृष्ठभूमि में जो राजनीतिक खिंचाव उभरा है, वह उतना ही चिंताजनक है जितना कि हमारे राष्ट्रीय विमर्श का लगातार ध्रुवीकरण।
शशि थरूर: एक राजनयिक, एक राजनीतिज्ञ और एक सुलझी हुई आवाज़
शशि थरूर की योग्यता पर सवाल उठाना नादानी होगी। वह न केवल संयुक्त राष्ट्र में तीन दशकों की सेवाओं के अनुभवी हैं, बल्कि भारत की ओर से वैश्विक मंचों पर सबसे संतुलित और प्रभावशाली आवाज़ माने जाते हैं। जब केंद्र सरकार ने उन्हें एक डेलीगेशन का नेतृत्व सौंपा, तो यह राष्ट्रहित में बिल्कुल उपयुक्त चयन था। लेकिन दुर्भाग्यवश, कांग्रेस ने उन्हें अपनी अधिकृत सूची में शामिल नहीं किया।
यह सवाल यहीं से उठता है — क्या कांग्रेस अपनी ही सबसे वैश्विक आवाज़ पर भरोसा नहीं कर पा रही? या फिर यह अंदरूनी राजनीति की कोई दबी छाया है?
राजनीतिक पृष्ठभूमि में संवादहीनता
कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश द्वारा जारी की गई प्रतिनिधिमंडल की सूची में थरूर का नाम न होना स्पष्ट करता है कि पार्टी नेतृत्व के साथ उनका संवाद सीमित या जटिल होता जा रहा है। वहीं थरूर का बयान — “राष्ट्रीय हित में पीछे नहीं हट सकता” — दर्शाता है कि उनके लिए भारत पहले है, पार्टी बाद में।
यह स्थिति भारतीय राजनीति के लिए एक आईना भी है, जिसमें योग्य नेतृत्व को निजी असहमति या आंतरिक गुटबाजी की बलि चढ़ा दिया जाता है।
कूटनीतिक जीत या राजनीतिक अवसरवाद?
मोदी सरकार द्वारा थरूर को चयनित करना निश्चित ही एक कूटनीतिक मास्टरस्ट्रोक है। इससे सरकार की सोच यह भी स्पष्ट होती है कि वह विपक्ष की प्रभावशाली आवाज़ों को भी साथ लेकर चलने का इच्छुक चेहरा पेश करना चाहती है — चाहे वह थरूर हों या सुप्रिया सुले।
लेकिन यह भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि विपक्ष में अगर ऐसे प्रभावशाली चेहरों को खुद उनका दल पर्याप्त महत्व नहीं देता, तो उससे भाजपा को नैरेटिव निर्माण में बल मिलेगा।
राष्ट्र पहले, राजनीति बाद में होनी चाहिए
‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे मिशन हमें यह याद दिलाते हैं कि भारत की सुरक्षा, गरिमा और वैश्विक छवि किसी भी दलगत मतभेद से ऊपर होनी चाहिए। शशि थरूर जैसे नेता जब राष्ट्रहित में आगे आते हैं, तो पूरे देश को उनके पीछे खड़ा होना चाहिए — न कि उनकी पार्टी को उनसे कन्नी काटनी चाहिए।
आज जब पाकिस्तान के झूठे नैरेटिव को जवाब देने की ज़रूरत है, तब भारतीय राजनीति को यह साबित करना होगा कि वह कम से कम विदेश नीति और राष्ट्र सुरक्षा जैसे मुद्दों पर एकजुट रह सकती है। वरना, दुनिया तो देख ही रही है।
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