नवाबों की 9.70 पैसे की ‘शाही पेन्शन – लखनऊ पहुंचने में लगते हैं हजार

सैफी हुसैन
सैफी हुसैन

वसीका कोई आम पेंशन नहीं थी। ये वो “शाही इनकम” थी जो अवध के नवाबों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को दिए कर्ज के बदले तय करवाई थी — ब्याज की शक्ल में पीढ़ी दर पीढ़ी वंशजों को पेंशन मिलती रहेगी।

लेकिन अब ज़माना कुछ ऐसा बदला है कि 130 रुपये हर 13वें महीने मिलते हैं, और 9.70 पैसे की मासिक पेंशन लेने के लिए भी सैकड़ों रुपये लखनऊ आने में खर्च करने पड़ते हैं

ईस्ट इंडिया कंपनी गई, अंग्रेज गए – लेकिन वसीका अभी भी जारी है!

1857 के गदर के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी तो 1874 में बंद हो गई, लेकिन नवाबी वसीका की परंपरा इतनी ठोस निकली कि भारत के आज़ाद होने के बाद भी ये परंपरा आज भी जिंदा है।

उत्तर प्रदेश सरकार हर साल इसके लिए बजट भी रखती है, ताकि वंशजों को “symbolic respect” दिया जा सके — हकीकत में इसे देख के खुद बहू बेगम भी कहती होंगी।

130 रुपये की पेंशन, हजारों का किराया – नवाबों की मौजूदा जिंदगी

कुछ वंशजों को 130 रुपये हर 13वें महीने मिलते हैं। दूसरी ओर एक वसिकादार महोदय को 9.70 पैसे मासिक पेंशन। अब सवाल उठता है – क्या ये है नवाबों का “interest”?

ट्रेन टिकट से लेकर फॉर्म भरवाने तक का खर्च ज्यादा है। फिर भी नवाबों का जज़्बा कायम है – परंपरा निभानी है भले ही जेब खाली हो।

बहू बेगम की करोड़ों की वसीयत, और आज का ‘पाई-पाई’ का बंटवारा

इतिहासकारों के मुताबिक नवाब वज़ीर फैज़ुल्ला की पत्नी बहू बेगम ने करीब 4 करोड़ रुपये ईस्ट इंडिया कंपनी को दिए थे। इस रकम पर ब्याज के रूप में वसीका तय हुआ था।

लेकिन समय के साथ दो बातें हो गईं:

  1. वंशजों की संख्या बढ़ी – पेंशन बंटी

  2. रुपये की वैल्यू गिरी – वसीका की वैल्यू भी गिरी

अब हाल ये है कि एक पूरी वंशावली बैठ जाए तो चाय-समोसे में पूरी वसीका खत्म।

कोर्ट जाएंगे नवाब? – वसीका बढ़वाने की ‘शाही याचिका’

कुछ वसिकादारों ने ये ठान लिया है कि अब वो कोर्ट में वसीका बढ़वाने की याचिका दायर करेंगे। “न्यायालय से उम्मीद है कि कम से कम ऑटो किराया तो निकल आए!”

हालांकि ज़्यादातर वंशज अभी भी इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते। पर जो भी हैं, परंपरा को बचाए रखने के लिए वसीका लेते रहेंगे – चाहे उसमें केवल nostalgia ही बचे। “पहले वसीका ‘नवाबी स्टेटस’ थी, अब मात्र सरकारी लेटर है!”

चांदी की कीमत के बराबर चाहिए वसीका

नवाब शिकोह आज़ाद कहते हैं, हमें वसीका आज़ादी से पहले चांदी के सिक्कों में मिलता था लेकिन उसके बाद उन सिक्कों को चलन से हटा कर गिलेट के सिक्के चलन में लाये गए और हमारा वसीका उनमें ही दिया जाने लगा जोकि गलत है।

नवाबों की कहानी, परंपरा की त्रासदी

ये कहानी सिर्फ पेंशन की नहीं है – ये एक ऐसी विरासत की कहानी है जो अब खुद को बचाने की कोशिश कर रही है। वसीका आज भी मिलता है, लेकिन अब वो नवाबी ठाठ नहीं, सिर्फ़ बीते वक्त की याद दिलाता है।

शायद नवाबों की सबसे बड़ी विरासत उनका आत्मसम्मान है, जो 9.70 पैसे में भी झुकता नहीं।

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