
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के वरिष्ठ नेता डॉ. फारूक़ अब्दुल्लाह ने सिंधु जल संधि (Indus Waters Treaty) पर केंद्र सरकार से दोबारा विचार करने की अपील की है। उन्होंने कहा कि जब 1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच यह संधि हुई, तब जम्मू-कश्मीर की जनता की राय नहीं ली गई थी और इसका सबसे अधिक नुकसान राज्य को ही हुआ है।
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“बिजली घर नहीं बना सकते, एक बाल्टी पानी नहीं निकाल सकते”
एएनआई को दिए बयान में फारूक़ अब्दुल्लाह ने स्पष्ट कहा:
“हम कोई भी बिजलीघर नहीं बना सकते जब तक पाकिस्तान की इजाज़त न हो। एक बाल्टी पानी भी निकालने से पहले हमें सीमा पार की स्वीकृति चाहिए।”
उन्होंने आगे कहा कि जम्मू, जो राज्य की शीतकालीन राजधानी है, पानी की भारी कमी से जूझ रहा है और उनकी सरकार ने एक समय 200 करोड़ की जल योजना भी प्रस्तावित की थी, जो राजनीतिक या प्रशासनिक कारणों से ठप पड़ गई।
क्या वाकई सिंधु जल संधि जम्मू-कश्मीर के लिए नुकसानदेह रही है?
1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच विश्व बैंक की मध्यस्थता से हुई सिंधु जल संधि के तहत भारत को ब्यास, रावी और सतलुज नदियों का नियंत्रण मिला, जबकि पाकिस्तान को सिंधु, झेलम और चिनाब की धाराएं मिलीं। चिनाब और झेलम नदियां जम्मू-कश्मीर से होकर बहती हैं, इसलिए इन पर भारत के अधिकार सीमित हैं।
फारूक़ अब्दुल्लाह का यह तर्क है कि यही सीमाएं राज्य की पनबिजली परियोजनाओं, कृषि और जलापूर्ति पर असर डालती हैं।
भारत सरकार का रुख: संधि की समीक्षा और जल-राजनय
हाल के वर्षों में भारत ने कई बार यह संकेत दिया है कि वह सिंधु जल संधि के “अनुचित लाभ” की समीक्षा कर सकता है, विशेषकर पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को समर्थन देने के आरोपों के बीच। जनवरी 2023 में भारत ने विश्व बैंक को औपचारिक पत्र भेजकर संधि पर पुनरावलोकन की मांग भी की थी।
यह मांग केवल राजनयिक दबाव की रणनीति नहीं है, बल्कि जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों के लिए जल-प्रबंधन और विकास के वास्तविक मुद्दों से भी जुड़ी है।
अब्दुल्लाह का बयान कैसे पढ़ा जाए?
डॉ. अब्दुल्लाह का यह बयान सिर्फ भावनात्मक अपील नहीं है, बल्कि एक क्षेत्रीय मांग का प्रतीक भी है। हालांकि आलोचक इसे पाकिस्तान के प्रति नरमी या केंद्र के खिलाफ राजनीतिक दबाव की कोशिश मान सकते हैं, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि जम्मू में पानी की गंभीर कमी एक स्थायी समस्या रही है।
अब सिंधु जल संधि पर नए सिरे से विमर्श जरूरी है?
सिंधु जल संधि अब 65 वर्ष पुरानी हो चुकी है। जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, और आंतरिक जल-आवश्यकताओं के मद्देनज़र समय आ गया है कि भारत अपनी जल-नीति की समीक्षा करे — विशेष रूप से उन क्षेत्रों में, जहां बुनियादी ज़रूरतें आज भी अधूरी हैं।
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