
भारत में शिक्षा प्रणाली तेजी से एक ‘सर्विस इंडस्ट्री’ में बदलती जा रही है। आज अधिकतर निजी स्कूल शिक्षा कम और दिखावा अधिक बेच रहे हैं। अभिभावकों के लिए सवाल यह नहीं कि स्कूल कितना अच्छा है, बल्कि यह कि “हम इस साल कितनी जेब ढीली करने वाले हैं?”
मितरों जब औलाद निकले नालायक, ममता को किनारे रख करो कानूनी इलाज
हर साल बढ़ती फीस – किसके लिए और क्यों?
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पिछले 5 वर्षों में देश के शहरी निजी स्कूलों में फीस में औसतन 18-25% तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। नाम मात्र की “एडमिशन फीस” से शुरू होकर “Annual Charges”, “Smart Class Fee”, “Lab Development Fee” जैसे कई नए शीर्षक जोड़े जा चुके हैं। यह वृद्धि स्कूलों के इंफ्रास्ट्रक्चर से कहीं अधिक मार्केटिंग और इवेंट मैनेजमेंट पर केंद्रित है।
एक दौर था जब स्कूल की पिकनिक का मतलब होता था – बिस्कुट का पैकेट, झूले, और मास्टर जी की हिदायत। अब पिकनिक का मतलब है – 5000 रुपये का प्रपोज़ल, और फोटोशूट फुल प्रोफेशनल!
“शैक्षणिक भ्रमण” के नाम पर बच्चों को कहीं भी ले जाया जा सकता है – बशर्ते बस एसी हो और होटल में बुफे लंच।
फीस के ऊपर पिकनिक – जेब पर दूसरा हमला
खर्च का मद | औसत लागत |
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पिकनिक फीस | ₹800–₹5000 |
ड्रेस कोड (पिकनिक स्पेशल) | ₹500 |
स्नैक्स-पैकिंग का दबाव | ₹300 |
फोटो व वीडियो चार्जेस | ₹200–₹1000 |
मौसम बदला बच्चों से बोला जाता है, चलो पिकनिक
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किताबों-कॉपियों की दुकान अब स्कूल कैंपस में
कभी शिक्षा को ज्ञान का मंदिर कहा जाता था, अब ये कॉरपोरेट शॉपिंग मॉल बन गया है – जहाँ बच्चा दाखिला लेता है और मां-बाप का बजट एडमिशन से पहले ICU में पहुँच जाता है।
“आपको किताबें हमारे स्टॉल से ही लेनी हैं।”
– क्यों? क्या बाहर वाली किताबों में ज्ञान कम होता है?
यूनिफॉर्म – एक रंग, लेकिन दाम कई
बाहर मिल जाए ₹400 में – स्कूल बोले: “हमारी दुकान से लो ₹1200 में, तभी बच्चे एक जैसे दिखेंगे!” ड्रेस की हर साल ‘नवीनता’ इस तरह आती है जैसे स्कूल Lakmé Fashion Week हो!
ड्रेस में लुक से ज्यादा लूट शामिल है।
किताबें भी अब “Exclusive Edition”
किताब का नाम | बाज़ार में कीमत | स्कूल से कीमत |
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English Reader | ₹180 | ₹350 |
Hindi Workbook | ₹100 | ₹220 |
Science Manual | ₹150 | ₹300 |
क्या कहता है नियम?
CBSE की गाइडलाइन: कोई भी स्कूल पैरेंट्स को किताबें, यूनिफॉर्म, या स्टेशनरी किसी विशेष विक्रेता से खरीदने को बाध्य नहीं कर सकता।
कानून कहता है: माता-पिता को open market choice मिलनी चाहिए। शिकायत की जा सकती है जिला शिक्षा अधिकारी (DEO) या स्कूल बोर्ड को।
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लेकिन हकीकत में…
स्कूल कहते हैं: “ये सब सुविधा के लिए है।” – हाँ, सुविधा किसकी? स्कूल अकाउंट सेक्शन की? “हम quality देख कर supplier चुनते हैं।” मतलब जबरन महंगी quality देना अब समाज सेवा हो गया?
स्कूलों के नए-नए ‘चोचले’ – जरूरत या प्रदर्शन?
सुविधाएं | हकीकत |
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स्मार्ट क्लास | अधिकतर सिर्फ PPT तक सीमित |
रोबोटिक्स लैब | उपकरण हैं, गाइड नहीं |
विदेशी भाषा पाठ्यक्रम | प्रचार ज्यादा, उपयोगिता कम |
इन सुविधाओं की कीमत सीधे पैरेंट्स की जेब से वसूली जाती है – चाहे बच्चा उसका लाभ ले या नहीं।
गिरता शिक्षा स्तर – रटंत प्रणाली की वापसी
शिक्षा में सोचने-समझने की क्षमता घट रही है।
शिक्षक अधिकतर केवल पाठ्यपुस्तक और परीक्षा केंद्रित हो चुके हैं।
रचनात्मकता और आलोचनात्मक सोच जैसे कौशल हाशिये पर हैं।
स्कूलों में परीक्षा पास करना लक्ष्य बन गया है, ज्ञान प्राप्त करना नहीं।
अभिभावकों पर आर्थिक और मानसिक बोझ
मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए एक बच्चा पढ़ाना आज एक EMI प्रोजेक्ट बन चुका है।
बच्चों की पढ़ाई = स्कूल फीस + ट्यूशन फीस + अतिरिक्त गतिविधियाँ + ट्रांसपोर्ट
बहुत से अभिभावकों को मासिक वेतन का 30–50% सिर्फ शिक्षा पर खर्च करना पड़ता है।
यह न केवल आर्थिक रूप से थकाने वाला है, बल्कि मानसिक दबाव भी उत्पन्न करता है।
नियमन की कमी – कानून है, लेकिन लागू नहीं
कई राज्य सरकारों ने “Fee Regulation Acts” पारित किए हैं, लेकिन उनका प्रभाव सीमित है। स्कूल प्रबंधन अक्सर ‘अनुदान’ या ‘स्वैच्छिक सहयोग’ के नाम पर शुल्क वसूलता है।
नियमों की निगरानी के लिए मजबूत निगरानी तंत्र का अभाव है।
समाधान – शिक्षा को फिर से शिक्षा बनाना
फीस कैपिंग नीति को सख्ती से लागू किया जाए।
शिक्षा की गुणवत्ता पर केंद्रित ऑडिट और रैंकिंग प्रणाली लागू हो।
पैरेंट्स यूनियन को कानूनी अधिकार मिलें, ताकि वे संगठित रूप से आवाज़ उठा सकें।
शिक्षकों का प्रशिक्षण और मोटिवेशन बढ़ाया जाए – क्योंकि तकनीक शिक्षक का विकल्प नहीं हो सकती।
क्या आपके बच्चे के स्कूल में भी किताबों और यूनिफॉर्म के नाम पर लूट मची है? कमेंट करें, शेयर करें – ताकि ये धंधा बंद हो, और शिक्षा फिर से सेवा बने।