आनंद मठ (1952) रेट्रो रिव्यू: संन्यासियों का विद्रोह और ‘वंदे मातरम्’ की गूंज

अजमल शाह
अजमल शाह

1952 की ऐतिहासिक फिल्म ‘आनंद मठ’ को सिर्फ एक “क्लासिक फिल्म” कहना उसके साथ अन्याय होगा। यह फिल्म एक धार्मिक-सांस्कृतिक क्रांति की सिनेमाई व्याख्या है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध बंगाली उपन्यास पर आधारित यह फिल्म संन्यासी विद्रोह की पृष्ठभूमि में आज़ादी की चिंगारी को एक नया चेहरा देती है।

और हां, इसमें ‘साधु-संत’ सिर्फ प्रवचन नहीं, क्रांति का नेतृत्व करते हैं। रेट्रो सिनेमा के लिए इससे ज़्यादा metal कुछ नहीं हो सकता।

कहानी में तप और ताव दोनों

18वीं शताब्दी का बंगाल। भूख, भय और फिरंगियों का आतंक। ऐसे में कुछ संन्यासी अपने ईश्वर को याद करते हुए विद्रोह करते हैं। और नहीं, ये कोई Instagram वाले साधु नहीं हैं — ये तलवार और तर्क दोनों चलाना जानते हैं।

पृथ्वीराज कपूर के सत्यानंद, प्रदीप कुमार के जीवनानंद और भारत भूषण के महेंद्र के साथ फिल्म एक क्रांतिकारी संन्यासियों की ब्रिगेड बन जाती है।

संगीत: जब ‘वंदे मातरम्’ गूंजा तो रूह कांप उठी

इस फिल्म की जान उसका संगीत है। हेमंत कुमार का हिंदी फिल्म संगीत में पहला कदम — और क्या grand debut रहा!

  • लता मंगेशकर द्वारा गाया गया “वंदे मातरम्” किसी राष्ट्रगान से कम नहीं लगता।

  • गीता दत्त और तलत महमूद की जोड़ी ने क्रांति को करुणा और रूमानी रंग दे दिया।

नैनों में सावन से लेकर कैसे रोकोगे ऐसे तूफ़ान को तक — हर गाना जैसे कहानी का एक मोर्चा संभाल रहा हो।

अभिनय: जब संत अभिनय कर रहे थे, तब एक्टिंग क्लासेज नहीं थीं

पृथ्वीराज कपूर जैसे दिग्गज और गीता बाली की सादगी से भरी स्क्रीन प्रेज़ेंस फिल्म को संवेदनशीलता और सशक्तता दोनों देती है।
प्रदीप कुमार की यह पहली फिल्म थी, लेकिन उनके आत्मविश्वास में कोई शुरुआती झिझक नहीं दिखती।

वैसे, अजीत भी हैं — वही जो बाद में मोनाबाबू बनेंगे — यहां क्रांति की ट्रेनिंग ले रहे थे!

तकनीक और निर्देशन: हेमेन गुप्ता ने स्क्रीन पर इतिहास जिंदा किया

हेमेन गुप्ता का निर्देशन सधा हुआ है — कोई ज़रूरत से ज़्यादा मेलोड्रामा नहीं, और न ही ज़बरदस्ती की देशभक्ति। 176 मिनट की यह फिल्म कहीं-कहीं खिंचती ज़रूर है, पर फिर हर सीन एक राजनीतिक वक्तव्य बन जाता है।

जब ‘वंदे मातरम्’ केवल गीत नहीं, आंदोलन बन गया

‘आनंद मठ’ सिर्फ फिल्म नहीं, एक आंदोलन है। यह हमें याद दिलाती है कि देशभक्ति का मतलब सिर्फ नारेबाज़ी नहीं, संवेदनशीलता, त्याग और विवेक है।

और हां, ‘वंदे मातरम्’ अगर आज भी गूंजता है — तो उसकी नींव 1952 में इस फिल्म ने ही रखी।

इस फिल्म को देखना सिर्फ सिनेमा देखना नहीं, इतिहास को जीना है

अगर आपने आज तक ‘आनंद मठ’ नहीं देखी है, तो आपने न सिर्फ एक आइकॉनिक फिल्म मिस की है, बल्कि उस भावना को भी जो आज़ादी के पहले और बाद के भारत को जोड़ती है।

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