
1964 की फिल्म दोस्ती कोई फिल्म नहीं, एक एंटीक इमोशनल तोप थी, जो हर दर्शक की आंखों पर डायरेक्ट हमला करती थी। इस फिल्म को देखकर ऐसा लगता था जैसे डायरेक्टर ने कह दिया हो, “भाई, जो नहीं रोया, उसे टिकट फ्री!”
प्लॉट या इमोशनल जाल?
कहानी दो दोस्तों की है – एक अंधा, दूसरा लंगड़ा। सुनने में लगेगा कि ये कोई अस्पताल की दोस्ती है, पर नहीं – ये उस जमाने की स्क्रिप्ट है जब इमोशन का मीटर ऑटोमैटिक हायपर पर था। हर सीन में या तो किसी का दुख है, या फिर दुख से दुखी कोई और।
म्यूज़िक: जब हर गाना आंखों का वॉशिंग मशीन था
“चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे” – अगर आप ये गाना बिना टिशू बॉक्स सुने, तो शायद आपकी आंखें भावनात्मक रूप से रिटायर हो चुकी हैं। मजरूह सुल्तानपुरी के बोल और लता-रफी की आवाज़ ने दोस्ती को ऑडियो रूप में मूर्त बना दिया।
एक्टिंग: दिल को छू लेने वाली, जेब तक पहुंचने वाली
सुधीर कुमार और सुषिल कुमार की जोड़ी ने ऐसा परफॉर्म किया कि ऑडियंस को लगा, “अब हमें भी एक लंगड़ा और अंधा दोस्त चाहिए!” एक्टिंग इतनी सच्ची थी कि लोग थिएटर से निकलते वक्त एक-दूसरे से पूछते, “तू ठीक से देख पा रहा है ना?”
लॉजिक तो चला गया दोस्ती निभाने
कहानी में इतने इमोशन थे कि लॉजिक खुद टपकते आंसुओं में बह गया। कोई ये नहीं पूछ रहा था कि ये दोनों लड़के इतने साल तक खुद को कैसे सपोर्ट करते हैं… क्योंकि उस वक्त सवाल पूछना मतलब दोस्ती की बेइज़्जती थी।
दोस्ती देखी नहीं जाती, निभाई जाती है (वो भी रो-रोकर)
आज के Z-Gen अगर ये फिल्म देखें, तो शायद कहें – “कौन इतने ट्रैजिक दोस्त बनाता है भला?” पर 80 के दशक में यही दोस्ती का स्टैंडर्ड था। यहां दोस्त एक-दूसरे की जान बचाने से पहले गाना गाते थे और हर मोड़ पर भावनाओं की गंगा बहती थी।
‘दोस्ती’ – एक इमोशनल स्लैप, जिसे सभी ने खुशी-खुशी खाया
ये फिल्म दोस्ती की परिभाषा नहीं, उसका सिनेमाई महाकाव्य थी। जब बॉलीवुड दोस्ती के नाम पर सिर्फ हग और ब्रो-फिस्ट दिखाता था, ‘दोस्ती’ ने दिखाया कि अगर दोस्ती में दर्द नहीं, तो क्या किया!
अगली बार जब कोई कहे “तू मेरा सच्चा दोस्त है” – तो उससे पूछिए, ‘तू मेरे लिए गाना गा सकता है?