
1982 में आई फ़िल्म “नदिया के पार” किसी फिल्म से कम और गांव के चबूतरे पर बैठी दादी की कहानी से ज्यादा लगती है।
ये फ़िल्म थी उस दौर की जब प्यार आंखों से होता था, मैसेज से नहीं। और शादी तय होती थी तुलसी के पौधे के पास, Tinder पर नहीं।
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हीरो: सीधे खेत से निकला देसी क्रश
सचिन (चंदन) का किरदार ऐसा जैसे खेत में पैदा हुआ, कसम से ‘ग्लिसरीन’ के बिना भी आंखें नम कर दे। उसका रोमांस कोई “आई लव यू बेबी” टाइप नहीं था, बल्कि “चुपके से पानी पिला दो, प्यार हो गया” टाइप था।
हीरोइन: गूंघट वाली मोहब्बत, जिसमें दिल तो दिखा… पर नाक नहीं
सावित्री (गुंजा), जो गाती थी – “कौन दिशा में ले के चला रे…”, और आज की हीरोइनों से उलट, उसकी ड्रेस कोड में सिर्फ साड़ी और शर्म शामिल थी। कभी SMS नहीं भेजा, पर उसके एक गाने में 100 रील्स का इमोशन भर जाता था।
गाने: रीमिक्स नहीं, गांव के आँगन में जन्मी लोरी
“कइसन पिया के बिना” सुनकर आज भी लगता है किसी ने Spotify पर गांव की playlist चला दी हो। रवींद्र जैन की धुनों में वो ठेठ देसी खुशबू है, जो फिल्टर के बिना भी छा जाती है।
साइड कैरेक्टर: बैल, खेत और बड़ा भैया – तीनों लाइफ का अहम हिस्सा
यहां बैल भी एक्टिंग करता है और खेत भी बैकग्राउंड आर्ट बन जाता है। और बड़ा भैया?
ऐसे संस्कारी विलेन जो अगर किसी और हीरोइन से प्यार कर बैठे तो आत्मग्लानि में शादी रोक दें — अब कहां मिलते हैं ऐसे!
सेट डिज़ाइन या गांव की VFX?
सड़क पर धूल, दीवारों पर गोबर और छत पर खप्पर — ये सब उस दौर की VFX थे, जब बजट कम, लेकिन भावना हाई क्वालिटी थी।
क्यों देखनी चाहिए ‘नदिया के पार’ आज भी?
क्योंकि इसमें
– कोई डायलॉग “Tu meri jaan hai baby” नहीं है
– रोमांस हवा में है, हार्ट इमोजी में नहीं
– और प्यार का पहला स्टेप “चुपचाप देखना” है, फ्रेंड रिक्वेस्ट नहीं
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अब जहां प्यार दिखाना मतलब चाय में बिस्किट डुबाना नहीं, बल्कि किचन में रोमांस करना हो गया है, ‘नदिया के पार’ एक reminder है कि कम में भी बहुत कुछ होता है।
‘नदिया के पार’ – आज के रिश्तों की तुलना में, वो सच में ‘पार’ है
अगर आपने आज तक इस फिल्म को नहीं देखा, तो यकीन मानिए – आपने गांव की हवा, सादगी की मिठास और सच्चे इश्क की गर्मी मिस की है। देखिए, फिर समझिए कि प्यार में शांति भी होती है, सिर्फ शॉर्ट्स नहीं।
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