दर्पण में छिपा है राज़ या बस एक शैतानी शरारत?”

शालिनी तिवारी
शालिनी तिवारी

तारीख: आज… क्योंकि दर्पण में बीता कल कभी नहीं दिखता। जब आईना बोल उठा: “तू कौन?” जब भी हम दर्पण के सामने खड़े होते हैं, तो लगता है जैसे सामने कोई है — एक हूबहू, एक साया, एक नकलची दोस्त… लेकिन वो हम नहीं है, सिर्फ हमारी “अनुमति से प्रतिबिंबित आत्म-छवि” है। और अगर ध्यान से देखो, तो उसका चेहरा हमसे ज़्यादा शांत होता है। शायद इसलिए कि उसे हमारी चिंता नहीं होती।

तलवार चली, केक कटा, और बिहार की राजनीति में फिर से ‘लड्डू युद्ध’ शुरू!

साइंस कहता है: बस रोशनी है, तू ज्यादा मत सोच।

दर्पण कोई रहस्य नहीं, न्यूटन से लेकर नासा तक हर कोई कह चुका — ये बस प्रकाश का परावर्तन है। यानी जो टकराया, वो लौटा। जैसे राजनीति में वादे टकराते हैं और फिर वापस आते हैं — लेकिन उल्टे!

“तू दाएँ गया, छाया बाएँ गई — ये कोई राजनीतिक गठबंधन नहीं, बस भौतिकी है।”

फिर भी ऋषि-मुनि क्यों बोले: दर्पण में माया है?

क्योंकि हमारे पूर्वजों को दर्पण में सिर्फ चेहरा नहीं दिखता था, आत्मा की परतें दिखती थीं। “माया है ये संसार” — कहकर उन्होंने दर्पण को Reality Check Machine बना दिया।
बौद्धों ने देखा उसमें शून्यता, वेदांती बोले असत्य की सजीव मूर्ति, और फेंग शुई वालों ने तो उसे घर के मूड स्विच में बदल दिया। दाएं रखो तो सुख, बाएं रखो तो सास बोलेगी: “घर की हवा ही भारी है!”

‘मिरर डाइमेंशन’ और मार्वल की मिलावट

Doctor Strange को देखा? वहां दर्पण तोड़ो, और दुनिया बदल जाती है। पर असल जिंदगी में दर्पण टूटे तो 7 साल की बदकिस्मती, और साथ में पड़ोसी की कसमसाई हुई आवाज़:

“अरे राम राम! बाथरूम का शीशा टूटा है, किसी की नजर लगी है।”

विज्ञान कहता है: “मल्टीवर्स है, पर दर्पण से नहीं खुलता।”
फिर भी फिल्मों ने हमें सिखाया — दर्पण के उस पार ज़रूर कोई ‘रहस्यलोक’ है… जहाँ बाल सही से सेट रहते हैं, और सेल्फी पहली बार में परफेक्ट आती है।

दर्पण और वहम का विज्ञान

कभी देर रात आईने में देखो — चेहरा वैसा लगता है जैसे किसी दूसरे का हो।
कहते हैं इसे Strange Face Illusion — दिमाग आपको डराता है क्योंकि उसे टाइमपास चाहिए।
कुछ लोग तो Capgras Delusion में फंस जाते हैं:

“ये मेरी बीवी नहीं है, ये उसका दर्पण वर्जन है!”
“भाई, नींद ले लो, सब नॉर्मल है।”

क्या दर्पण से आत्माएं ट्रैवल करती हैं?

हां, लोककथाओं में आत्माएं दर्पण में कैद होती हैं — लेकिन रियल लाइफ में बस आपकी दादी की चेतावनी कैद होती है:

“सोते समय दर्पण मत देखो, सपने उलटे पड़ते हैं।”

दर्पण में आत्मा नहीं, हमारे भ्रम और बैकग्राउंड लाइट होती है।
हां, अगर बाथरूम का बल्ब झपकता है और पीछे परछाई हिलती दिखे — तो विज्ञान बाद में, भगवती चालू पहले!

तो दर्पण क्या है?

दर्पण एक उत्साही आलोचक है — वो कभी झूठ नहीं बोलता, पर सच भी उतना ही दिखाता है जितना रोशनी पड़ रही हो।

दर्पण वही है जो हमें दिखाता है कि चेहरा धोने की ज़रूरत है, आत्मा नहीं।
वो रोज़ कहता है —

“मैं तेरे जैसा ही हूँ, पर थोड़ी चमक के साथ।”

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