क्या है Caste Census, जिनसे विपक्ष को किया खुश,जानें इतिहास और विवाद

सैफी हुसैन
     सैफी हुसैन

30 अप्रैल 2025 को केंद्र सरकार ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए आगामी जनगणना के साथ जातिगत जनगणना कराने की घोषणा की। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने यह जानकारी दी और इस कदम को सामाजिक न्याय की दिशा में बड़ा निर्णय बताया। इसके साथ ही उन्होंने विपक्षी दलों को निशाने पर लेते हुए कहा कि कांग्रेस ने अब तक जातीय मुद्दों को केवल राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है।

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जातिगत जनगणना क्या होती है?

जातिगत जनगणना में देश की पूरी आबादी को जाति के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। इससे यह पता लगाया जाता है कि किस जाति की आबादी कितनी है और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्या है। यह जानकारी नीति निर्धारण, आरक्षण व्यवस्था, और सामाजिक कल्याण योजनाओं के लिए बुनियादी आधार प्रदान करती है।

भारत में जातिगत जनगणना का इतिहास

भारत में जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी।

1931 तक, हर जनगणना में जातिवार आंकड़े शामिल किए जाते थे।

1941 में आंकड़े तो जुटाए गए लेकिन उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया।

1947 में आजादी के बाद, केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के आंकड़े ही प्रकाशित किए गए।

OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) के आंकड़े कभी भी प्रकाशित नहीं हुए, जबकि नीति निर्माण में उनका महत्त्व बढ़ता गया।

 क्यों है जातिगत जनगणना की ज़रूरत?

पुराने आंकड़ों पर निर्भरता:
वर्तमान में OBC आरक्षण की सीमा 1931 की जनगणना के आधार पर तय की गई है। जबकि देश की जनसंख्या और सामाजिक स्थिति में बहुत परिवर्तन आ चुका है।

सटीक योजना निर्माण:
SC/ST वर्ग की तरह OBC वर्ग को भी उनकी आबादी के आधार पर आरक्षण दिया जा सकेगा, जिससे सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जा सके।

वास्तविक स्थिति का आकलन:
जातिगत आंकड़ों के आधार पर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी योजनाओं को टार्गेटेड तरीके से लागू किया जा सकेगा।

पक्ष और विपक्ष के तर्क

समर्थन में तर्क:

नीति निर्धारण में पारदर्शिता

पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों की पहचान

आरक्षण का वैज्ञानिक आधार

विरोध में तर्क:

जातीय विभाजन को बढ़ावा

राजनीतिक ध्रुवीकरण

सामाजिक सौहार्द्र में बाधा

राज्य स्तरीय जातीय सर्वेक्षण: क्या रहा अनुभव?

कर्नाटक (2014-2017):

सिद्धारमैया सरकार ने सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे कराया।

सर्वे में 192 नई जातियाँ सामने आईं।

कुछ जातियाँ ऐसी थीं जिनकी जनसंख्या 10 से भी कम थी।

प्रमुख समुदायों (लिंगायत, वोक्कालिगा) की संख्या घटी, जिससे राजनीतिक विवाद हुआ।

रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई

बिहार (2023):

जातीय सर्वे से पता चला कि राज्य की 63% आबादी OBC और EBC वर्ग से आती है।

अनुसूचित जाति की आबादी 20% और सामान्य वर्ग की आबादी महज 15% पाई गई।

यह सर्वे सामाजिक नीतियों के पुनर्मूल्यांकन का आधार बन गया।

केंद्र सरकार का बदला रुख

अब तक केंद्र सरकार जातिगत जनगणना से बचती रही थी, लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले यह निर्णय लिया गया। यह साफ संकेत है कि राजनीतिक समीकरणों, सामाजिक मांगों और नीतिगत दबावों को देखते हुए सरकार अब एक नई सामाजिक संरचना की रूपरेखा तय करने जा रही है।

जातिगत जनगणना का फैसला भारत के सामाजिक और राजनीतिक विमर्श में एक नए युग की शुरुआत है। यह न केवल पिछड़े वर्गों के हक की सही पहचान में सहायक हो सकता है, बल्कि आरक्षण व्यवस्था को वैज्ञानिक और समयानुकूल बनाने की दिशा में एक अहम कदम भी साबित हो सकता है। हालांकि, इसका संतुलित और निष्पक्ष क्रियान्वयन ही इसे सफल बना सकता है।

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