
गाजा की रेत पर चल रही है एक नई शांति की लहर – और इस लहर में अब भारत भी बह सकता है। मिस्त्र के राष्ट्रपति फराह अल सिसी ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गाज़ा शांति सम्मेलन में शामिल होने का न्योता भेजा है।
सम्मेलन 13 अक्टूबर को शर्म-अल-शेख में होगा, जहां दुनिया के 20 देशों के नेता जुटेंगे, लेकिन सबकी निगाहें होंगी सिर्फ दो पर – मोदी और ट्रंप।
पीस डील या पीआर डील? ट्रंप के 20 पॉइंट प्लान पर बवाल
डोनाल्ड ट्रंप, जो दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति बन चुके हैं, अब मध्य पूर्व में भी डील ऑफ द डिकेड करने निकले हैं।
उनकी गाज़ा पीस प्लान में युद्धविराम, गाज़ा से इज़रायली सेना की वापसी पुनर्निर्माण और स्वतंत्रता का खाका लेकिन सबसे बड़ा ट्विस्ट – हमास इस डील को “बकवास” कहकर साइन करने से मना कर चुका है।
मतलब: शांति समझौता है, लेकिन शांति के बिना ही।
भारत का ‘शांति दूत’ मोड ऑन? लेकिन पीएम जाएंगे या मंत्री जी ही काफी?
भारत की ओर से पहले से तय किया गया है कि विदेश राज्य मंत्री कीर्तिवर्धन सिंह इस सम्मेलन में शामिल होंगे। लेकिन जब निमंत्रण सीधे PM मोदी को मिला है, तो क्या ये ‘Modi Hai To Mumkin Hai’ मोमेंट बन सकता है?
भारत के पास दोनों से रिश्ते हैं – इज़रायल और फिलीस्तीन, दोनों से चाय पी रखी है। इसलिए, भारत की मौजूदगी सिर्फ ज़रूरी नहीं, बल्कि रणनीतिक भी मानी जा रही है।
मोदी-ट्रंप मुलाकात के सस्पेंस पर दुनिया की नजरें
क्या शर्म-अल-शेख में एक बार फिर दिखेगा “Howdy Modi” पार्ट-2? या फिर दोनों नेता “नमस्ते-नमस्ते” कर के अलग-अलग कोने में खड़े रहेंगे?
ट्रंप को इस डील से नोबेल का सपना है, और मोदी को Global Peacemaker की छवि चाहिए।
दोनों के पास कैमरा-ready लुक है, अब देखना ये है कि मंच भी ready होता है या नहीं।
हमास की शांति से शंका: “हथियार डालना मज़ाक है!”
गाज़ा में हमास ने डील के कुछ हिस्सों पर सहमति दी है, लेकिन “हथियार डालने” और “गाज़ा से हटने” की शर्तों पर हमास ने पीछे हटने की मुद्रा बना ली है। ट्रंप शायद सोच रहे थे कि “मैं आया, मैंने बोला, और डील हो गई!” लेकिन मिडल ईस्ट की राजनीति में Netflix की पॉलिटिकल ड्रामा सीरीज़ से भी ज़्यादा ट्विस्ट हैं।
इज़रायल सम्मेलन से गायब: नेतन्याहू बोले – डील? नहीं चाहिए!
इस सम्मेलन में इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू शामिल नहीं होंगे। उनकी सोच साफ है – हमास को खत्म करना है, डील-वील बाद में।
मतलब, सम्मेलन में एक पक्ष है, दूसरा है लेकिन तीसरा (जो सबसे ज़रूरी है) – ग़ायब है।
डील पर साइन तो हो सकती है, पर डील लागू हो – इसकी गारंटी कोई नहीं दे रहा।
क्या शांति का बटन अब भी काम करता है?
इस सम्मेलन में अगर ट्रंप और मोदी साथ मंच साझा करते हैं, तो headlines बनेंगी – लेकिन headlines से ज़्यादा ज़रूरी है ground reality।
क्या गाज़ा में वाकई शांति लौटेगी?
या फिर ये शिखर सम्मेलन भी सिर्फ एक और “Global Event with zero local impact” बन कर रह जाएगा?