
साल था 1980। जनता टीवी के बजाय सिनेमा हॉल में “क्लास” लेती थी और रंजीत सिंह लोबो जैसे लोग बच्चों को पढ़ाई से ज़्यादा साज़िशें सिखाते थे। निर्देशक इस्माईल श्रॉफ की ‘बुलन्दी’ ऐसी ही क्लासिक कहानी है जिसमें राज कुमार का संवाद और डैनी का ड्यूल रोल — दोनों ही ‘सिलेबस’ से बाहर हैं।
प्लॉट: गुरु और गुंडों का गहन गठबंधन
प्रोफेसर सतीश खुराना (राज कुमार) एक आदर्शवादी शिक्षक हैं जिन्हें पढ़ाना है मनजीत सिंह लोबो (डैनी डेन्जोंगपा) को, जो इतने बिगड़े हुए हैं कि Netflix भी उसे कास्ट करने से डरे। सतीश के टैलेंट से बाकी रसूखदार पिता भी अपने बेटे उनके हवाले कर देते हैं।
पर ट्विस्ट ये कि ये सब “मालिकों की मिलीभगत” है — सतीश को फंसाना है, ताकि पढ़ाई नहीं, पॉलिटिक्स चले।
“इस कॉलेज में किताबों से ज़्यादा चालें पढ़ाई जाती हैं!”
राज कुमार: गुरु भी, वकील भी, और थोड़े से CID भी
राज कुमार इस फिल्म में सिर्फ छात्रों को ही नहीं, दर्शकों को भी ‘संवाद बोलने’ की क्लास देते हैं। जब वो कहते हैं, “हम उस दौर में जी रहे हैं जहाँ ईमानदारी को बेवकूफी समझा जाता है”, तो लगता है मानो 2025 की स्क्रिप्ट पढ़ ली हो।
जिन्हें खुद पर भरोसा नहीं, वो दूसरों की नीयत पर शक करते हैं।”
डैनी डेन्जोंगपा: डबल रोल, डबल चाल
डैनी ने पिता रंजीत सिंह लोबो और बेटे मनजीत – दोनों रोल निभाए और दोनों में ही ‘पावरपैक नेगेटिव एनर्जी’ डाली। अगर आपके पास डैनी हो, तो आपको विलेन की कमी कभी महसूस नहीं होगी — ये सिनेमा का वन-मैन आर्मी विलेन पैकेज है।
“डैनी का बेटा डैनी ही निकला – फिल्म में भी और स्क्रीन पर भी!”
संगीत: आर.डी. बर्मन की क्लासिक छाप, मजरूह की कलम से
फिल्म का संगीत उतना ही मजबूत है जितनी फिल्म की साजिशें। “कहो कहाँ चले” और “अभी तो हम हुए जवाँ” जैसे गाने आज भी बारिश में सुनिए तो खुद को 80s की लोकल ट्रेन में महसूस करेंगे।
गायक लाइनअप: किशोर, रफ़ी, आशा, अमित — यानी एकदम प्लैटिनम कलेक्शन।
“ये वो जमाना था जहाँ गाने शोर नहीं करते थे, असर करते थे।”
‘बुलन्दी’ सिर्फ नाम नहीं, नैतिकता का पुराना फ़ार्मूला
इस फिल्म में आपको मिलेगा:
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क्लास रूम ड्रामा
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पॉलिटिकल प्लॉटिंग
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मास्टर स्ट्रोक डायलॉग
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और RD बर्मन की जादूगरी
यानी शिक्षा और साज़िश के तड़के वाली पूरी प्लेट। ‘बुलन्दी’ आज की पीढ़ी के लिए बस एक फिल्म नहीं, संवेदनशीलता और सस्पेंस का पुराना पिटारा है।