
पाकिस्तान को दुनिया कभी ‘फेल स्टेट’ कहती है, कभी ‘रॉग स्टेट’ तो कभी ‘क्लाइंट स्टेट’—क्योंकि यहां लोकतंत्र का हाल वैसा ही है जैसे सर्दियों में पाकिस्तान क्रिकेट टीम का प्रदर्शन: अस्थिर, अनप्रेडिक्टेबल और अक्सर आउट ऑफ फॉर्म।
असल में यहां की सत्ता की असली स्क्रिप्ट GHQ (जनरल हेडक्वार्टर) में लिखी जाती है, और अवाम को बस “ब्रेकिंग न्यूज” दी जाती है।
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जनरल्स के जनरल: फौज क्यों है हर जगह?
पाकिस्तान की फौज वही है जो कभी ‘डेमोक्रेसी के रखवाले’ बनकर सत्ता हड़प लेती है, तो कभी ‘मुक्ति सेनानियों’ को ट्रेनिंग देकर आतंकवाद को निर्यात करती है।
लश्कर-ए-तैयबा हो या जैश-ए-मोहम्मद, या फिर एबटाबाद का गेस्ट हाउस (जहां बिन लादेन छुट्टियां बिता रहा था)—सबकी छांव फौज की आशीर्वाद से ही होती है।
व्हाइट हाउस में बिरयानी का स्वाद या ब्लैकमेल की बुनियाद?
7 मई को भारत ने “ऑपरेशन सिंदूर” के ज़रिए पाकिस्तान के आतंकी शिविरों को हिला डाला। लेकिन कुछ ही हफ्तों बाद ट्रंप जनरल आसीम मुनीर को व्हाइट हाउस लंच पर बुला बैठे।
क्यों? क्योंकि भू-राजनीति में बिरयानी की खुशबू से ज़्यादा जरूरी होती है लोकेशन की गंध।
लोकेशन, लोकेशन, लोकेशन – पाकिस्तान की असली पूंजी
पाकिस्तान की अहमियत उसके संविधान में नहीं, उसकी भौगोलिक स्थिति में है—ईरान, अफगानिस्तान, चीन और अमेरिका की कूटनीति के बीच की वो ‘पॉवर नैप पॉइंट’ जहां सबका ध्यान जाता है।
जैसे रियल एस्टेट में लोकेशन बेचती है, वैसे ही पाकिस्तान अपने सेटेलाइट आतंकवाद और जनरल-जिहाद से खुद को बेचे जा रहा है।
अमेरिका का दोगलापन और पाक की “डिप्लोमैटिक ब्रांड वैल्यू”
जब सोवियत अफगानिस्तान में घुसा, तब अमेरिका ने पाक को अपना प्यादा बनाया। फिर जब बिन लादेन वहीं छुपा मिला, तो वही प्यादा “बदमाश” बन गया।
पर आज भी अमेरिका पाकिस्तान को आंख दिखाने की बजाय लंच पर बुलाता है। क्यों? क्योंकि अमेरिका को लोकतंत्र से ज़्यादा मतलब है अपने हित और चीन की काट से।
तो मुनीर सरकार के कंट्रोल में हैं? या खुद सरकार हैं?
मुनीर की स्थिति वैसी ही है जैसे किसी फिल्म के निर्माता, निर्देशक और हीरो—all in one. उनकी व्हाइट हाउस विजिट, लश्कर से रिश्ता, और NSA की ताजपोशी—सब इस ओर इशारा करते हैं कि मुनीर अब सिर्फ एक आर्मी चीफ नहीं, पाकिस्तान के CEO हैं।
भारत के लिए सीख: बिरयानी डिप्लोमेसी से सावधान रहें!
भारत ने भले ही ऑपरेशन सिंदूर से पाकिस्तान को सैन्य जवाब दे दिया, लेकिन डिप्लोमैसी में अमेरिका अब भी उसी जनरल का साथ दे रहा है, जिसने आतंकियों का अंतिम संस्कार गले मिलकर किया।
पाकिस्तान आज भी “लोकतांत्रिक गणराज्य” कम, और “फौजी संयुक्त उद्यम” ज्यादा लगता है। और जब व्हाइट हाउस जैसे मंच पर बिरयानी की थाली सजती है, तो यह तय हो जाता है कि भू-राजनीति में नैतिकता का मोल, बिरयानी के तड़के से भी कम रह गया है।