
वक़्फ़ प्रबंधन से जुड़ा विधेयक कुछ ही घंटों में राजनीतिक बयानबाज़ी और धारणाओं का अखाड़ा बन गया। जहाँ एक तरफ विरोध करने वालों ने इसे मुसलमानों की संपत्ति पर हमला बताया, वहीं दूसरी ओर समर्थकों ने इसे “वक़्फ़ के आतंक” से मुक्ति का रास्ता कहा।
ये बहस केवल विधायी नहीं थी, बल्कि एक सोच को स्थापित करने की कोशिश भी थी।
क्या इस्लामी देशों में वक़्फ़ होता ही नहीं?
बीजेपी सांसद संबित पात्रा ने संसद में यह दावा कर दिया कि कई इस्लामिक देशों में वक़्फ़ जैसी कोई संस्था नहीं होती। उन्होंने तुर्की, मिस्र, सूडान, सीरिया जैसे देशों का नाम लिया।
फैक्ट चेक:
यह दावा तथ्यात्मक रूप से ग़लत है। दुनिया के हर इस्लामिक देश में वक़्फ़ या औक़ाफ़ जैसी संस्थाएं मौजूद हैं:
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तुर्की: 1924 से “डायरेक्टोरेट ऑफ़ फ़ाउंडेशन” वक़्फ़ संपत्तियों को मैनेज करता है।
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मिस्र: Ministry of Awqaf मस्जिदों, अस्पतालों और बाज़ारों की देखरेख करता है।
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इराक़: सुन्नी, शिया और गैर-मुस्लिम के लिए अलग-अलग वक़्फ़ संस्थाएं।
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UAE, मलेशिया, बांग्लादेश: धार्मिक मामलों के मंत्रालय के अंतर्गत वक़्फ़ विभाग।
भारत में वक़्फ़ की स्थिति और कानूनी पहचान
भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है और वक़्फ़ बोर्ड एक संवैधानिक निकाय है। यह कोई निजी ट्रस्ट नहीं, बल्कि सरकार द्वारा स्थापित और ऑडिट किया जाने वाला संस्थान है। संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत हर राज्य में CEO की नियुक्ति सरकार करती है। CAG (महालेखा परीक्षक) इसका ऑडिट करता है। वक़्फ़ संपत्ति घोषित करने की प्रक्रिया तीन स्तरों पर जांच से गुजरती है।
क्या यह सिर्फ़ मुसलमानों का मुद्दा है?
भारत की तुलना इस्लामी देशों से करना न केवल भ्रामक है, बल्कि संवैधानिक रूप से अनुचित भी है। “भारत का संविधान हमें धर्मनिरपेक्षता सिखाता है, न कि धार्मिक बहुसंख्या की तानाशाही।”
क्या यह सब एक नैरेटिव का हिस्सा था?
केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने दावा किया कि तिरुचिरापल्ली में हजारों एकड़ ज़मीन वक़्फ़ घोषित कर दी गई। बाद में ज़िला अधिकारियों ने इस दावे को झूठा बताया।

यह बताता है कि यह बहस सिर्फ़ तथ्य आधारित नहीं, बल्कि राजनीतिक नैरेटिव निर्माण का हिस्सा भी थी।
“धारणाएं सच्चाई से ज़्यादा शक्तिशाली होती हैं। और मीडिया उन्हें फैलाने का सबसे तेज़ माध्यम है।”
तो, क्या वक़्फ़ बोर्ड ज़मीन हड़पता है?
नहीं।
कोई भी संपत्ति वक़्फ़ घोषित करने के लिए:
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डीड ऑफ़ डेडिकेशन चाहिए
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गवाह और प्रमाण होने चाहिए
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सर्वे, सुनवाई और प्रकाशन की प्रक्रिया होती है
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अदालत में अपील की जा सकती है
यह सब रिकॉर्ड में होता है, और आम नागरिक के पास न्यायिक रास्ता खुला होता है।
बहस ज़रूरी है, लेकिन तथ्य आधारित होनी चाहिए
वक़्फ़ बिल पर संसद में हुई बहस ने यह तो साफ़ कर दिया कि धारणा निर्माण और राजनीतिक एजेंडा कितना गहरा असर डाल सकता है। लेकिन जब देश के संवैधानिक मूल्य, अल्पसंख्यकों के अधिकार, और सामाजिक एकता की बात हो, तब सिर्फ़ भावनाओं नहीं, तथ्यों से बात होनी चाहिए।